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पृष्ठ:रघुवंश.djvu/३४१

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रघुवंश।


अपने पिता की अत्यधिक सेवा करके अपनी आत्मा को कृतार्थ कर दिया। इस कारण उसका पिता, ब्रह्मिष्ठ, पुत्रवानों में सब से अधिक भाग्यशाली समझा गया। ब्रह्मिष्ठ ने जब देखा कि अब मेरे वंश के डूबने का डर नहीं तब उसने विषयोपभोग की तृष्णा छोड़ दी। सारे भोगविलासों से अपने चित्त को हटा कर वह पुष्कर नामक तीर्थ को चला गया। वहाँ स्नान करके वह देवत्व-पद को प्राप्त हो गया। उसने इस लोक में इतने पुण्य कार्य किये थे कि यह बात पहलेही से मालूम सी हो गई थी कि मुक्त होने पर वह इन्द्र का अवश्य ही साथी हो जायगा। वही हुआ। इन्द्र का मित्र बन कर वह इन्द्रही के समान ऐश्वर्यसुख भोगने लगा।

राजा पुत्र की रानी ने, पूस की पूर्णमासी के दिन, पुष्प नाम का पुत्र प्रसव किया। उसकी कान्ति पद्म-राग-मणि की कान्ति से भी अधिक उज्ज्वल हुई। दूसरे पुष्प नक्षत्र के समान उस राजा के उदित होने पर, उसकी प्रजा को सब तरह की पुष्टि और तुष्टि प्राप्त हुई। पुष्य बड़ाही उदार-हृदय राजा हुआ। जब उसकी रानी के पुत्र हुआ तब उसने पृथ्वी का भार अपने पुत्रही को दे दिया। बात यह हुई कि यह राजा जन्म-मरण से बहुत डर गया था। वह न चाहता था कि फिर उसका जन्म हो। इस लिए ब्रह्मवेत्ता जैमिनि का वह शिष्य हो गया। जैमिनिजी विख्यात योगी थे। उनसे योग-विद्या का अध्ययन करके, अन्तकाल आने पर, राजा पुष्य ने समाधि-द्वारा शरीर छोड़ दिया। उसकी इच्छा भी सफल हो गई। वह मुक्त हो गया और फिर कभी उसका जन्म न हुआ।

उसके अनन्तर ध्रुव के समान कीर्तिशाली उसके ध्रुवसन्धि नामक पुत्र ने अयोध्या का राज्य पाया। वह बड़ाही सत्यप्रतिज्ञ राजा हुआ। उसके सामने उसके सभी शत्रुओं को सिर झुकाना पड़ा। उसने इस योग्यता से राज्य किया कि उसके वैरियों की की हुई सन्धियों में कभी किसी को दोष निकालने का मौका न मिला। जो सन्धि एक दफ़े हुई वह वैसीही अटल बनी रही। कभी उसके संशोधन की आवश्यकता न पड़ी।

उसके द्वितीया के चन्द्रमा के समान दर्शनीय सुदर्शन नाम का सुत हुआ। मृगों के समान बड़ी बड़ी आँखों वाले ध्रुवसन्धि को आखेट से बड़ा प्रेम था। फल यह हुआ कि नरों में सिंह के समान उस बलवान्