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अठारहवाँ सर्ग।


राजा ने शिकार खेलते समय सिंह से मृत्यु पाई। उस समय उसका पुन। सुदर्शन बहुत छोटा था।

ध्रुवसन्धि के स्वर्गगामी होने पर अयोध्या की प्रजा अनाथ हो गई। उसकी दीन दशा को देख कर ध्रुवसन्धि के मंत्रियों ने, एकमत होकर, उसके कुल के एक मात्र तन्तु सुदर्शन को विधिपूर्वक अयोध्या का राजा बना दिया। ध्रुवसन्धि के वही एक पुत्र था। अतएव उसे राजा बना देने के सिवा अयोध्या की प्रजा को सनाथ करने का और कोई उपाय ही न था। उस बाल-राजा को पाने पर रघुकुल की दशा नवीन चन्द्रमा वाले आकाश से, अथवा अकेले सिंह-शावक वाले वन से, अथवा एकमात्र कमलकुड्मल वाले सरोवर से उपमा देने योग्य हो गई।

जिस समय शिशु सुदर्शन ने अपने सिर पर किरीट और मुकुट धारण किया उस समय अयोध्या की प्रजा को बहुत सन्तोष हुआ। सब लोगों ने कहाः-"कुछ हर्ज नहीं जो हमारा राजा अभी बालक है। किसी दिन तो वह अवश्यही तरुण होगा। और, तरुण होने पर वह अवश्यही पिता की बराबरी करेगा। क्योंकि, हाथी के बच्चे के समान छोटा भी बादल का टुकड़ा, सामने की पवन पाकर, क्या सभी दिशाओं में नहीं फैल जाता?"

सुदर्शन की उम्र, उस समय, यद्यपि केवल छः ही वर्ष की थी तथापि वह हाथी पर सवार होकर नगर में कभी कभी घूमने के लिए राजमार्ग से निकलने लगा। जिस समय वह निकलता, राजसी पोशाक में बड़ी सजधज से निकलता और महावत उसे थाँभे रहता। उसे जाते देख अयोध्यावासी, उसके बालवयस का कुछ ख़याल न करके, उसका उतनाही गौरव करते जितना कि वे उसके पिता का किया करते थे।

जिस समय सुदर्शन अपने पिता के सिंहासन पर आसीन होता उस समय, शरीर छोटा होने के कारण, सिंहासन की सारी जगह उससे व्याप्त न हो जाती। वह बीच में बैठ जाता और आस पास सिंहासन खाली रह जाता। परन्तु शरीर से वह छोटा था तो क्या हुआ, तेजस्विता में वह बहुत बढ़ा चढ़ा था। उसके शरीर से सुवर्ण के समान चमकीला तेज जो निकलता था वह चारों तरफ़ इतना फैल जाता था कि उससे सारा सिंहासन भर सा जाता था। अतएव उसका कोई भी अंश खाली न मालूम होता