कह कर इस सिद्धान्त को भी स्वीकार किया है। सांख्यशास्त्रसम्ब- न्धिनी उनकी अभिज्ञता के दर्शक एक श्लोक का अवतरण पृष्ठ १० में पहले ही दिया जा चुका है।
इस में तो कुछ भी सन्देह नहीं कि कालिदास ज्योतिष-शास्त्र के पण्डित थे । इस बात के कितने ही प्रमाण उनके ग्रन्थों में पाये जाते हैं। उज्जयिनी बहुत काल तक ज्योतिर्विद्या का केन्द्र थी। जिस समय इस शास्त्र की बड़ी ही ऊर्जितावस्था थी उसी समय, अथवा उसके कुछ काल आगे पीछे,कालिदास का प्रादुर्भाव हुआ। अतएव ज्योतिष से उनका परिचय होना बहुत ही स्वाभाविक थाः-
इत्यादि ऐसी कितनी ही उक्तियाँ कालिदास के ग्रन्थों में विद्यमान हैं जो उनकी ज्योतिष-शास्त्रज्ञता के कभी नष्ट न होनेवाले सर्टिफिकेट हैं।
ग्रहण के यथार्थ कारण को भी कालिदास अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने रघुवंश में लिखा है:-
छाया हि भूमेः शशिना मलत्वेनारोपिता शुद्धिमतः प्रजाभिः ।
कुमारसम्भव के:-
हरस्तु किं चित्प्रविलुप्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः ।
इस श्लोक से सूचित होता है कि समुद्र में ज्वार-भाटा आने का प्राकृतिक कारण भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था।
ध्रुव-प्रदेश में दीर्घ-काल तक रहनेवाले उषःकाल का भी उन्हें ज्ञान था । उन्होंने लिखा है:-