सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रघुवंश.djvu/३५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८८
उन्नीसवाँ सर्ग।

महावर लगाने बैठ जाता। परन्तु मन उसका उसकी रूपराशि और अङ्गशोभा देखने में इतना लग जाता कि महावर अच्छी तरह उससे न लगाते बनता। जिस काम में मन नहीं लगता वह क्या कभी अच्छा बन सकता है ?

अग्निवर्ण ने कुतूहल-प्रियता की हद कर दी। जिस समय उसकी कोई रानी, एकान्त में सामने दर्पण रख कर, अपना मुँह देखती उस समय वह चुपचाप उसके पीछे जाकर बैठ जाता और मुस- कराने लगता । जब उसका प्रतिबिम्ब दर्पण में दिखाई देता तब बेचारी रानी, लाज के मारे, अपना सिर नीचा करके रह जाती ।

कभी कभी अग्निवर्ण यह बहाना करके बाहर जाने लगता कि इस समय मुझे अपने एक मित्र का कुछ काम करना है। उसके लिए मेरा जाना अत्यावश्यक है। परन्तु उसकी रानियाँ उसकी एक न सुनतीं । वे कहती :"हे शठ ! हम तेरे छल-कपट को खूब जानती हैं । इस तरह अब हम तुझे नहीं भाग जाने देंगी।" यह कह कर वे उसके केश पकड़ कर बलवत् रोक रखतीं । तिस पर भी वह कभी कभी रानियों को धोखा देकर, अँधेरी रात में,निकल ही जाता। जब इस बात की खबर दूतियों द्वारा रानियों को मिलती तब वे भी उसके पीछे दौड़ पड़ती और रास्ते ही से यह कह कर उसे पकड़ लाती कि तू इस तरह हम लोगों को धोखा देकर न जाने पावेगा।

अग्निवर्ण के लिए दिन तो रात हो गई और रात दिन हो गया। दिन भर तो वह सोता और रात भर जागता । अतएव वह चन्द्रविकासी कुमुदों से परिपूर्ण सरोवर की उपमा को पहुँच गया । क्योंकि वे भी दिन को बन्द रहते और रात को खिलते हैं।

जिन गानेवालियों के ओठों और जंघाओं पर व्रण थे उन्हीं से वह कहता कि ओठों पर रख कर बाँसुरी और जङ्घाओं पर रख कर वीणा बजाओ। जब वे उसकी आज्ञा का पालन करती और उसकी इस धूर्तता को लक्ष्य करके वक्रदृष्टि द्वारा उसे रिझातों क्या-उला- हना देती तब वह मन ही मन बहुत प्रसन्न होता।

नाचने-गाने में तो वह प्रवीण था ही । एकान्त में वह कायिक, वाचिक