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रघुवंश।


और मानसिक-तीनों प्रकार का अभिनय नर्तकियों को सिखाता। फिर मित्रों के सामने वह उनसे वही अभिनय कराता। अभिनय के समय वह बड़े बड़े नाट्याचार्यों को भी बुलाता और उन्हें अभिनय दिखाता। यह बात वह इसलिए करता जिसमें निपुण नाट्याचार्य भी उस अभिनय को देख कर अवाक् हो जाये और उन्हें उन नर्तकियों से हार माननी पड़े। और उनसे हारना मानों उनके गुरु स्वयं अग्निवर्ण से हारना था।

"वर्षा ऋतु आने पर वह उन कृत्रिम पर्वतों पर चला गया जहाँ मतवाले मोर कूक रहे थे। वहाँ पर कुटज और अर्जुन वृक्ष के फूलों की मालाधारण करके और कदम्ब के फूलों के पराग का उबटन लगा कर उसने मनमाना विहार किया। उस समय उसने अपनी मानवती महिलाओं को मनाने की ज़रूरत न समझी। उसने कहा, मनाने का श्रम में व्यर्थ ही क्यों उठाऊँ। बादलों की गर्जना सुनते ही उनका मान आपही आप छूट जायगा।

कातिः क का महीना लगने--शरद ऋतु आने पर उसने चॅदोवा तने हुए महलों में निवास किया और मेघमुक्त उज्ज्वल चाँदनी में हास-विलास करके अपनी आत्मा को कृतार्थ माना। सरयू उसके महलों के पास ही थी। उसके वालुकामय तट पर हंस बैठे हुए थे। अतएव, उसका हंसरूपी करधनीवाला तट नितम्ब के सदृश जान पड़ता था और ऐसा मालूम होता था कि सरयू अग्निवर्ण की प्रियतमाओं के विलास की होड़ कर रही है। अग्निवर्ण उसकी शोभा को अपने महलों की खिड़कियों से देख देख प्रसन्न होता।

जाड़े आने पर अग्निवर्ण ने अपनी प्रियतमाओं को अगर से सुवासित सुन्दर वस्त्र स्वयं धारण कराये। उन्हें पहनने पर उन स्त्रियों की कमरों में सोने की जो मेखलायें पड़ी थीं वे उन वस्त्रों के भीतर स्पष्ट झलकती हुई दिखाई देने लगीं। उन्हें देख कर अग्निवर्ण के आनन्द की सीमा न रही। वह, इस ऋतु में, अपने महलों के भीतरी भाग के कमरों में, जहाँ पवन की ज़रा भी पहुँच न थी, रहने लगा। वहाँ पवन का प्रवेश न होने के कारण, जाड़े की रातों ने, दीपकों की निश्चल-शिखारूपी दृष्टि से, अग्निवर्ण के भोग-विलास को आदि से अन्त तक देखा-देखा क्या मानों उसकी कामुकता की भवाह सी होगई।