पृष्ठ:रघुवंश.djvu/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
रघुवंश के हिन्दी अनुवाद।


लाला सीताराम, बी० ए०, का है, और दूसरा पण्डित सरयूप्रसाद मिश्र का। उनके विषय में यहाँ पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वे पद्य में हैं और यहाँ केवल गद्य में किये गये अनुवादों की विशेषता का उल्लेख करने की आवश्यकता है।

रघुवंश का गद्यात्मक अनुवाद पहले पहल राजा लक्ष्मणसिंह ने किया। इस अनुवाद को उन्होंने-"विद्यार्थियों के उपकार के लिए हिन्दी बोली में किया।" इसमें उन्होंने संस्कृत के प्रत्येक पद का अर्थ चुने हुए शब्दों में ज्यों का त्यों हिन्दी में कर दिया है। न उन्होंने कोई पद अपनी सरफ़ से बढ़ाया और न कोई घटाया। उन्होंने अपने अनुवाद में मूल का यहाँ तक अनुगमन किया है कि संस्कृत के जिस पद में जो विभक्ति थी, उसके हिन्दी-अनुवाद में भी, यथासम्भव, वही विभक्ति रक्खी है। अर्थात् संस्कृत के मूल शब्दों को उन्होंने तद्वत् हिन्दी में रख दिया है। रघुवंश का पहला श्लोक है:-

वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।

इसका अनुवाद राजा साहब ने किया है:--

वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त (वागर्थप्रतिपत्तये) मैं वन्दना करता हूँ (वन्दे) वाणी और अर्थ की नाई (वागर्थाविव) मिले हुए (संपृक्तौ) जगत् के (जगतः) माता-पिता (पितरौ) शिव पार्वती को (पार्वतीपरमेश्वरौ)।

इससे पाठकों को मालूम हो जायगा कि राजा साहब ने जो यह अर्थ किया कि:-

"वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त मैं वन्दना करता हूँ वाणी और अर्थ की नाई मिले हुए जगत् के माता-पिता शिव पार्वती को।"

वह संस्कृत के प्रत्येक पद का शब्दार्थ हुआ और संस्कृत के जिस पद में जो विभक्ति थी वही हिन्दी में भी रही। इसी तरह राजा साहेब ने सारे रघुवंश का अनुवाद किया है। यह अनुवाद विद्यार्थियों के सचमुच ही बड़े काम का है और इसे प्रकाशित करके राजा साहब ने विद्यर्थियों का बड़ा उपकार किया।