इसका अर्थ राजा साहब ने लिखा है:-
सोने के आसन पर बैठे हुए उन दूल्हा-दुलहिन ने स्नातकों का और बान्धवों सहित राजा का और पति-पुत्र वालि झा बारी बारी से आले धान बोना देखा।
और,पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र ने लिखा है:-
सोने के सिहासन पर बैठे हुए वह वर और वधू स्नातकों और कुटुम्बियों सहित राजा का तथा पति और पुत्र वालियों का क्रम क्रम ले गीले धान बोना देखते हुए।
इसी श्लोक का भावार्थ इस अनुवाद में इस प्रकार लिखा गया है:-
इसके अनन्तर सोने के सिंहासन पर बैठे हुए वर और वधू के सिर पर (रोचनारज्जित ) गीले अक्षत डाले गये । पहले स्नातक गृह- स्थों ने प्रक्षत डाले,फिर बन्धु-बान्धवों सहित राजा ने,फिर पति-पुत्रवती पुरवासिनी स्त्रियों ने।
इसी तरह के भेदभावदर्शक सातवे ही सग के एक और स्थल को देखिए । इस सर्ग का सत्तावनवाँ श्लोक है:-
राजा साहब ने इसका शब्दार्थ इस तरह लिखा है:-
वह विषङ्ग के मुख पर सुन्दर दाहना हाथ रखता हुआ युद्ध में दिखलाई दिया; एक बार कान तक खैंची हुई उस योद्धा की प्रत्यञ्चा ने मानो वैरियों के मारनेवाले बाण उत्पन्न किए।
और,पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र ने लिखा है:--
वह संग्राम में सुघड दक्षिण हाथ को तरकस के मुख पर रखता हुआ दीखा,और इस युद्ध करनेवाले की एक बार खैंची हुई प्रत्यचा ने शत्रु के संहार करने हारे मानों शर उत्पन्न किये।
इसी श्लोक का भावार्थ इस अनुवाद में इस तरह लिखा गया है:-
वाणविद्या में अज इतना निपुण था कि वह अपना दाहना अथवा बायाँ हाथ बाण निकालने के लिए कब अपने तूणीर में डालता और बाण निकालता था,यही किसी को मालूम न होता था। उस अलौकिक योद्धा के हस्त लाघव का यह हाल था कि उसके दाहने और बायें,दोनों हाथ,एक से उठते थे। धनुष की डोरी जहा उसने एक दफे कान तक सानी तहाँ यही मालूम होता था कि शत्रुओं का संहार