पृष्ठ:रघुवंश.djvu/७६

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दूसरा सर्ग।


विना न रहेगा। मुझे तू कुछ भी पीड़ा नहीं पहुंचा सकता। वायु का वेग ऊँचे ऊँचे पेड़ों को चाहे भले ही उखाड़ फेंके; परन्तु पहाड़ों पर उसका कुछ भी ज़ोर नहीं चल सकता। तुझे नहीं मालूम कि मैं कौन हूँ। इसी से शायद तू यह कहे कि मुझ में इतना सामर्थ्य कहाँ से आया। अच्छा, सुन। मैं निकुम्भ का मित्र हूँ। मेरा नाम कुम्भोदर है। मैं अष्टमूर्ति शङ्कर का सेवक हूँ। कैलास पर्वत के समान शुभ्र-वर्ण नन्दो के ऊपर सवार होते समय, कैलाशनाथ पहले मेरी पीठ पर पैर रखते हैं। तब वे अपने वाहन नन्दी पर सवार होते हैं। इस कारण उनके चरण-स्पर्श से मेरी पीठ अत्यन्त पवित्र हो गई है। सिंह का रूप धारण करके मैं यहाँ पर क्यों रहता हूँ, इसका भी कारण मैं तुझे बतला देना चाहता हूँ।

"यह जो सामने देवदारू का वृक्ष देख पड़ता है उसे वृषभध्वज शङ्कर ने अपना पुत्र मान रक्खा है। पार्वती ने अपने घट-स्तनों का दूध पिला कर जिस तरह अपने पुत्र स्कन्द का पालन-पोषण किया है उसी तरह उन्होंने अपने सुवर्ण कलश-रूपी स्तनों के पयःप्रवाह से सींच कर इसे भी इतना बड़ा किया है। उनका इस पर भी उतना ही प्रेम है जितना कि स्कन्द पर है। एक दिन की बात है कि एक जङ्गली हाथी का मस्तक खुजलाने लगा। उस समय वह इसी वृक्ष के पास फिर रहा था। इस कारण उसने अपने मस्तक को इसके तने पर रगड़ कर खुजली शान्त की। उसके इस तरह बलपूर्वक रगड़ने से इसकी छाल निकल गई। इस पर पार्वती को बड़ा शोक हुआ। युद्ध में दैत्यों के शस्त्र प्रहार से स्कन्द के शरीर का चमड़ा छिल जाने पर उन्हें जितना दुःख होता उतनाही दुःख उन्हें इस वृक्ष की छाल निकल गई देख कर हुआ। तब से महादेवजी ने मुझे सिंह का रूप देकर, हिमालय की इस गुफा में, वन-गजों को डराने के लिए रख दिया है और आज्ञा दे दी है कि दैवयोग से जो प्राणी यहाँ आ जाय उसी को खा कर मैं अपना निर्वाह करूँ। कई दिन से खाने को न मिलने के कारण मुझे बहुत भूखा जान, और इस गाय का काल आ गया अनुमान कर, इसे परमेश्वर ही ने यहाँ आने की बुद्धि दी है। चन्द्रमा का अमृत पान करने से जैसे राहु की तृप्ति हो जाती है उसी तरह इसका रक्त पीकर अपने उपोषणव्रत की पारणा करने से मेरी भी