पृष्ठ:रघुवंश.djvu/८२

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दूसरा सर्ग।

उस समय'बेटा ! उठ'---ऐसे अमृत मिले हुए वचन उसके कान में पड़े। उन्हें सुन कर वह उठ बैठा। पर सिंह उसे वहाँ न दिखाई पड़ा। टपकते दूधवाली एक मात्र नन्दिनी ही को उसने,अपनी माता के समान,नंसामने खड़ी देखा । इस पर दिलीप को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसे बेतरह विस्मित देख नन्दिनी ने कहा:--

"हे राजा! साधुता की प्रशंसा नहीं हो सकती। यह जानने के लिए कि मुझ पर तेरी कितनी भक्ति है, मैंने ही यह सारी माया रची थी। वह सच्चा सिंह न था; मेरा निर्माण किया हुआ मायामय था। महर्षि वशिष्ठ की तपस्या के सामर्थ्य से प्रत्यक्ष काल भी मेरी ओर वक्र दृष्टि से नहीं देख सकता । बेचारे अन्य हिंसक जीव मुझे क्या मारेंगे ? बेटा ! तू बड़ा गुरु-भक्त है । मुझ पर भी तेरी बड़ी दया है। इस कारण मैं तुझ पर परम प्रसन्न हूँ। जो वर तू चाहे मुझ से माँग ले । यह न समझ कि मैं केवल दूध देने- वाली एक साधारण गाय हूँ; वर प्रदान करने की मुझ में शक्ति नहीं। मैं वैसी नहीं। मैं सब कुछ दे सकती हूँ। सारे मनोरथ पूर्ण करने की मैं शक्ति रखती हूँ। अतएव जो तू माँगेगा वही मुझसे पावेगा।" .

नन्दिनी को इस प्रकार प्रसन्न देख,याचकजनों का आदरातिथ्य करके उनके मनोरथ सफल करने वाले और अपने ही बाहु-बल से अपने लिए 'वीर' संज्ञा पानेवाले राजा दिलीप ने,दोनों हाथ जोड़ कर,यह वर माँगा कि सुदक्षिणा की कोख से मेरे एक ऐसा पुत्र हो जिससे मेरा वंश चले और जिसकी कीर्ति का किसी को अन्त न मिले। पुत्र-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले राजा की ऐसी प्रार्थना सुन कर उस दुग्धदात्री कामधेनु ने 'तथास्तु' कह कर उसे अभिलषित वर दिया। उसने आज्ञा दी-"बेटा ! पत्तों के दोने में दुह कर मेरा दूध तू पी ले। अवश्य ही वैसा पुत्र तेरे होगा।"

राजा ने कहा:- "हे माता! बछड़े के पी चुकने और यज्ञ-क्रिया हो जाने पर तेरा जो दूध बच रहेगा उसे, पृथ्वी की रक्षा करने के कारण राजा जैसे उसकी उपज का छठा अंश ले लेता है वैसे ही,मैं भी,ऋषि की आज्ञा से, ग्रहण कर लूँगा । तेरे दूध से पहले तो तेरे बछड़े की तृप्ति होनी चाहिए,फिर महर्षि के अग्निहोत्र आदि धार्मिक कार्य । तदनन्तर