पृष्ठ:रघुवंश.djvu/९०

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तीसरा सर्ग।


सुदक्षिणा को भी, कार्तिकेय और जयन्त की बराबरी करनेवाला पुत्र पाकर, हर्ष हुआ। चक्रवाक और चक्रवाकी में परस्पर अपार प्रेम होता है। उनमें एक दूसरे का प्रेम एक दूसरे के हृदय को बाँधे सा रहता है। सुदक्षिणा और दिलीप के प्रेम का भी यही हाल था। चक्रवाक पक्षी के जोड़े के प्रेम की तरह इन दोनों के प्रेम ने भी एक दूसरे के हृदय को बाँध कर एक सा कर दिया था। वह प्रेम इस समय उनके इकलौते बेटे के ऊपर यद्यपि बँट गया, तथापि वह कम न हुआ। वह और भी बढ़ता ही गया-पुत्र पर चले जाने पर भी उन दोनों का पारस्परिक प्रेम क्षीण न हुआ, उलटा अधिक हो गया।

धाय के सिखलाने से धीरे धीरे रघु बोलने लगा। उसकी उँगली पकड़ कर वह चलने भी लगा। और, उसकी शिक्षा से वह नमस्कार भी करने लगा। इन बातों से उसके पिता दिलीप के आनन्द का ठिकाना न रहा। उसके तोतले वचन सुन कर तथा उसको चलते और प्रणाम करते देख कर पिता को जो सुख हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता। जिस समय दिलीप रघु को गोद में उठा लेता था उस समय पुत्र का अङ्ग छ जाने से राजा की त्वचा पर अमृत की सी वृष्टि होने लगती थी। अतएव, आनन्द की अधिकता के कारण उसके नेत्र बन्द हो जाते थे। पुत्र के स्पर्श-रस का यह अलौकिक स्वाद, बहुत दिनों के बाद, उसने पाया था।

सृष्टि की रचना करना तो ब्रह्मा का काम है, पर उसकी रक्षा करना उसका काम नहीं। और, रक्षा न करने से कोई चीज़ बहुत दिन तक रह नहीं सकती। इसीसे जब विष्णु का सत्यगुणात्मक अवतार हुआ तब ब्रह्मा को यह जान कर अपार सन्तोष हुआ कि मेरी रची हुई सृष्टि अब कुछ दिन तक बनी रहेगी। इसी तरह विशुद्धजन्मा रघु के जन्म से, मर्यादा के पालक और प्रजा के रक्षक राजा दिलीप को भी परम सन्तोष हुआ। पुत्र-प्राप्ति के कारण उसने अपने वंश को कुछ काल तक स्थायी समझा। उसे दृढ़ आशा हुई कि मेरे वंश के डूबने का अभी कुछ दिन डरं नहीं।

यथासमय रघु का चूडाकर्म हुआ। तदनन्तर उसके विद्यारम्भ का समय आया। सिर पर हिलती हुई कुल्लियों (जुल्फों) वाले अपने समययस्क मन्त्रिपुत्रों के साथ वह पढ़ने लगा और-नदी के द्वारा जैसे जलचर-

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