पृष्ठ:रघुवंश.djvu/९८

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तीसरा सर्ग।


जितना कि विधिपूर्वक यज्ञ समाप्त होने पर मिलता। यदि अश्वमेध का सारा फल पिता को प्राप्त हो जाय तो घोड़ा लौटाने की कोई वैसी आवश्यकता भी नहीं। एक बात और है। इस समय मेरा पिता यज्ञशाला में है। वह यज्ञसम्बन्धी अनुष्ठान में लगा हुआ है और यज्ञकर्ता में शङ्कर का अंश आ जाता है। इस समय, न वह यज्ञमण्डप को छोड़ सकता है और न यज्ञसम्बन्धी कामों के सिवा और कोई काम ही कर सकता है। इस कारण उस तक पहुँच कर उसे इस घटना की सूचना देना मेरे लिए सम्भव नहीं। इससे यह वृत्तान्त सुनाने के लिए तू अपना ही दूत मेरे पिता के पास भेज दे। बस, इतनी कृपा और कर।"

रघु की प्रार्थना को इन्द्र ने स्वीकार कर लिया और 'तथास्तु' कह कर जिस मार्ग से आया था उसीसे उसने प्रस्थान किया। इधर सुदक्षिणा-सुत रघु भी पिता के यज्ञमण्डप को लौट गया। परन्तु बहुत अधिक प्रसन्न होकर वह नहीं लौटा। युद्ध में विजयी होने पर भी घोड़े की अप्राप्ति उसके जी में खटकती रही।

उधर रघु के पहुँचने के पहले ही उसका पिता दिलीप सारी घटना, इन्द्र के दूत के मुख से, सुन चुका था। रघु जब पिता के पास पहुँचा तब उसके शरीर पर दिलीप को वज्र के घाव देख पड़े। उस समय पुत्र की वीरता का स्मरण करके उसे परमानन्द हुआ। हर्षाधिक्य के कारण उसका हाथ बर्फ के समान ठंढा हो गया। उसी हाथ को पुत्र के घावपूर्ण शरीर पर उसने बड़ी देर तक फेरा और उसकी बड़ी बड़ाई की।

जिस की आज्ञा को पूजनीय समझ कर सब लोग सिर पर धारण करते थे ऐसे उस परम प्रतापी राजा दिलीप ने, इस प्रकार, एक कम सौ यज्ञ कर डाले। उसने ये निन्नानवे यज्ञ क्या किये, मानो अन्त समय में, स्वर्ग पर चढ़ जाने की इच्छा से उसने इतनी सीढ़ियों का एक सिलसिला बना कर तैयार कर दिया।

एक कम सौ यज्ञ कर चुकने पर राजा दिलीप का मन इन्द्रियों की विषय-वासना से हट गया। राज्य के उपभोग से उसे विरक्ति हो गई। अतएव, उसने अपने तरुण और सर्वथा सुयोग्य पुत्र रघु को श्वेतच्छत्र आदि सारे राजचिह्न देकर उसे विधिपूर्वक राजा बना दिया। फिर वह

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