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रघुवंश।


होकर रघु ज़मीन पर गिर गया। इधर वह गिरा उधर सैनिकों की आँखों से टपाटप आँसू भी गिरे-उसे गिरा देख वे रोने लने। उस वज्राघात से रघु मूछित तो हो गया; परन्तु उसकी मूर्छा बड़ी देर तक नहीं रही। चोट से उत्पन्न हुई पीड़ा शीघ्र ही जाती रही। अतएव, सेना के हर्ष सूचक सिंहनाद के साथ, ज़रा ही देर में, वह उठ खड़ा हुआ-व्यथा रहित होकर उसे फिर युद्ध के लिए तैयार देख कर सैनिकों ने प्रचण्ड हर्ष-ध्वनि की।

शस्त्र चलाने और उनकी चोट सह लेने में रघु अपना सानी न रखता था। यद्यपि, उस पर इतना कठोर वज्रप्रहार हुआ, तथापि उसकी मार को उसने चुपचाप सह लिया। उसे इस तरह निष्ठुरता और क्रूरतापूर्वक, बहुत देर तक, अपने साथ शत्रुभाव से युद्ध करते देख इन्द्र को अतिशय सन्तोष हुआ। रघु के प्रबल पराक्रम के कारण उस पर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। बात यह है कि दया, दाक्षिण्य और शौय्य आदि गुण सभी कहीं आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं। शत्रुओं तक को वे मोहित कर लेते हैं; मित्रों का तो कहना ही क्या है। रघु की वीरता पर मुग्ध होकर इन्द्र ने उससे कहाः-

"मेरे वज्र में इतनी शक्ति है कि वह बड़े बड़े पर्वतों तक को सहज ही में काट गिराता है। आज तक तेरे सिवा और कोई भी उसकी मार खाकर जीता नहीं रहा। तुझ में इतना बल और वीय्य देख कर मैं तुझ से बहुत सन्तुष्ट हुआ हूँ। अतएव, इस घोड़े को छोड़ कर और जो कुछ तू चाहे मुझ से माँग सकता है।"

मूर्छा जाते ही इन्द्र पर छोड़ने के लिए रघु अपने तरकस से एक और बाण निकालने लगा था। उसकी पूँछ पर सोने के पंख लगे हुए थे। उनके चमक से अपनी उँगलियों की शोभा बढ़ाने वाले उस बाण को रघु ने आधा निकाल भी लिया था। परन्तु इन्द्र के मुँह से ऐसी मधुर और प्यारी वाणी सुनतेही, उसे फिर तरकस के भीतर रख कर, वह इन्द्र की बात का उत्तर देने लगा। वह बोला:-

"प्रभो! यदि तूने घोड़े को न छोड़ने का निश्चय ही कर लिया हो तो यह आशीर्वाद देने की दया होनी चाहिए कि यज्ञ की दीक्षा लेने में सदैव उद्योग करने वाले मेरे पिता को अश्वमेध यज्ञ का उतना ही फल मिले