सुनन्दा की इस उक्ति को सुन कर इन्दुमती ने प्रदेश के उस नरेश से अपनी आँख फेर ली और सुनन्दा से कहा—"आगे चल"। इससे यह न समझना चाहिए कि वह राजा इन्दुमती के योग्यही न था। और, न यही कहना चाहिए कि इन्दुमती में भले बुरे की परीक्षा का ज्ञान ही न था। बात यह है कि लोगों की रुचि एक सी नहीं होती। इन्दुमती की रुचि ही कुछ ऐसी थी कि उसे वह राजा पसन्द न आया। बस, और कोई कारण नहीं।
इसके अनन्तर द्वारपालिका सुनन्दा ने इन्दुमती को एक और राजा दिखाया। अत्यन्त पराक्रमी होने के कारण वह अपने शत्रुओं को दुःसह हो रहा था—उसका तेज उसके शत्रुओं को असह्य था। परन्तु इससे यह अर्थ न निकालना चाहिए कि उसमें कान्ति और सुन्दरता की कमी थी। नहीं, महाशूरवीर और तेजस्वी होने पर भी, उसका रूप—नवीन उदित हुए चन्द्रमा के समान—बहुतही मनोहर था। उसके पास खड़ी होकर इन्दुमती से द्वारपालिका कहने लगी:—
"राजकुमारी! यह अवन्तिका का राजा है। देख तो इसकी भुजायें कितनी लम्बी हैं। इसकी छाती भी बहुत चौड़ी है। इसकी कमर गोल है, पर विशेष मोटी नहीं। इसके रूप का वर्णन मुझसे नहीं हो सकता। इसकी शरीर-शोभा का क्या कहना है! यह, विश्वकर्म्मा के द्वारा सान पर चढ़ा कर बड़ी ही सावधानी से ख़रादे हुए सूर्य्य के समान, मालूम हो रहा है। जिस समय यह सर्वशक्तिमान् राजा अपनी सेना लेकर युद्धयात्रा के लिए निकलता है उस समय सब से आगे चलने वाले इसके घोड़े की टापों से उड़ी हुई धूल, बड़े बड़े सामन्त राजाओं के मुकुटों पर गिर कर, उनके रत्नों की प्रभा के अङ्कुरों का एक क्षण में नाश कर देती है। इसके सेना-समूह को देख कर ही इसके शत्रुओं के हृदय दहल उठते हैं और उनका सारा तेज क्षीण हो जाता है। उज्जैन में महाकाल नामक चन्द्र-मौलि शङ्कर का जो मन्दिर है उसके पास ही यह रहता है। इस कारण कृष्ण-पक्ष में भी इसे—इसेही क्यों, इसकी रानियों तक को—शुक्लपक्ष का आनन्द आता है। शहर के जटा-जूट में विराजमान चन्द्रमा के निकट ही रहने के कारण इसके महलों में रात को सदा ही चाँदनी बनी रहती है। सुन्दरी! क्या यह युवा राजा तुझे पसन्द है? यदि पसन्द हो तो सिप्रा नदी की तरङ्गों के स्पर्श से शीतल हुई वायु से कम्पायमान इसके फूल-बाग़ में तू आनन्द-पूर्वक विहार कर सकती है"।
चन्द्र-विकासिनी कुमुदनी जिस तरह सूर्य्य को नहीं चाहती—उसे