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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/१३३

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छठा सर्ग।

दूर तक चले गये हैं। इन पेड़ों के पत्ते जिस समय हवा से हिलते हैं उस समय उनसे बड़ा ही मनोहर शब्द होता है। इस राजा के साथ, समुद्र तट पर, ताड़ के पेड़ों की कुञ्जों में तुझे ज़रूर विहार करना चाहिए। यदि तू मेरी इस सलाह को मान लेगी तो द्वीपान्तरों में लगे हुए लौंग के सुगन्धित फूलों को छू कर आये हुए पवन के झकोरे तक तुझे प्रसन्न करने की चेष्टा करेंगे। पसीने की बूँदों को ज़रा भी वे तेरे शरीर पर न ठहरने देंगे—निकलने के साथ ही वे उन्हें सुखा देंगे।"

द्वारपालिका सुनन्दा ने, यद्यपि, इस तरह, उस लुभावने रूपवाली विदर्भ-नरेश की छोटी बहन को बहुत कुछ लोभ दिखाया, तथापि उसकी सलाह इन्दुमती को पसन्द न आई। अतपव उद्योगपूर्वक दूर से लाई हुई लक्ष्मी जिस तरह भाग्यहीन को छोड़ जाती है उसी तरह वह भी उस अभागी राजा को छोड़ कर आगे बढ़ गई।

तब इन्दुमती को द्वारपालिका सुनन्दा ने उरगपुर के देवतुल्य रूपवान् राजा के सामने खड़ा किया, और, उस चकोरनयनी से उस राजा की तरफ़ देखने के लिए प्रार्थना करके, वह उसका परिचय कराने लगी। वह बोली:—

"देख, यह पाण्ड्य-नरेश है। इसके शरीर पर पीले पीले हरिचन्दन का कैसा अच्छा खौर लगा हुआ है और इसके कन्धों से बड़े बड़े मोतियों का हार भी कैसी सुघरता से लटक रहा है। जिसके शिखरों पर बाल-सूर्य्य की पीली पीली, लालिमा लिये हुए, धूप फैल रही है और जिसके ऊपर से स्वच्छ जल के झरने झर रहे हैं—ऐसे पर्वतपति की छवि इसे देख कर याद आ जाती है। इस समय यह उसी के सदृश मालूम हो रहा है। राजकुमारी! तू अगस्त्यमुनि को जानती है? एक दफ़े विन्ध्याचल पर्वत, ऊँचा होकर, सूर्य और चन्द्रमा आदि की राह रोकने चला था। उसका निवारण अगस्त्य ही ने किया था। उन्हीं ने पहले तो समुद्र को पी लिया था। पर पीछे से उसे अपने पेट से बाहर निकाल दिया था। यही महामुनि अगस्त्य इस राजा के गुरु हैं। अश्वमेधयज्ञ समाप्त होने पर, अवभृथ नामक स्नान के उपरान्त, इस राजा का बदन सूखने भी नहीं पाता तभी, यही अगस्त्य बड़े प्रेम से इससे पूछते हैं—"यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया न?" इसके महत्त्व और प्रभुत्त्व का अन्दाज़ा तू इस एक ही बात से अच्छी तरह कर सकती है। ब्रह्मशिरा नामक अस्त्र प्राप्त करना बड़ा ही दुःसाध्य काम है। परन्तु, इस राजा ने देवाधिदेव शङ्कर को प्रसन्न करके उसे भी प्राप्त कर लिया है। इससे, पूर्वकाल में, जिस समय महाभिमानी लङकेश्वर रावण,

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