उधर उसका मस्तकहीन धड़, तब तक, समर-भूमि में, नाचता ही रहा। उसके नाच को विमान पर बैठे हुए इस वीर ने बड़े कुतूहल से देर तक देखा। अपने ही धड़ का नाच देखने को मिलना अवश्य ही कुतूहल की बात थी।
दो और वीर, रथ पर सवार, युद्ध कर रहे थे। उन दोनों ने परस्पर एक दूसरे के सारथी को मार गिराया। सारथीहीन रथ हो जाने पर वे ख़ुदही सारथी का भी काम करने लगे और लड़ने भी। कुछ देर में उन दोनों के घोड़े भी मर कर गिर गये। यह देख वे अपने अपने रथ से उतर पड़े और गदा-युद्ध करने लगे। उन्होंने ऐसा भीषण युद्ध किया कि ज़रा देर बाद उनकी गदायें चूर चूर हो गईं। तब वे दोनों, परस्पर, योंहीं भिड़ गये और जब तक मरे नहीं बराबर मल्लयुद्ध करते रहे।
दो और वीरों का हाल सुनिए। बड़ी देर तक परस्पर युद्ध करके वे दोनों एक ही साथ घायल हुए और एक ही साथ मर भी गये। स्वर्ग जाने पर एक ने जिस अप्सरा को पसन्द किया, दूसरे ने भी उसी को पसन्द किया। फल यह हुआ कि वहाँ भी दोनों आपस में विवाद करने और लड़ने लगे—देवता हो जाने पर भी उनका पारस्परिक बैर-भाव न गया।
कभी आगे और कभी पीछे बहनेवाली वायु की बढ़ाई हुई, महासागर की दो प्रचण्ड लहरें जिस तरह कभी आगे को बढ़ जाती हैं और कभी पीछे लौट जाती हैं, उसी तरह कभी तो अज की सेना, एकत्र हुए राजाओं की सेना की तरफ़, बढ़ती हुई चली गई और उसे हरा दिया, और, कभी राजाओं की सेना अज की सेना की तरफ़ बढ़ती हुई चली आई और उसे हरा दिया। बात यह कि कभी इसकी जीत हुई कभी उसकी। दो में से एक की भी हार पूरे तौर से न हुई। युद्ध जारी ही रहा। इस जय-पराजय में एक विशेष बात देख पड़ी। वह यह कि शत्रुओं के द्वारा अज की सेना के परास्त होने और थोड़ी देर के लिए पीछे हटजाने पर भी अज ने कभी, एक दफ़े भी, अपना पैर पीछे को नहीं हटाया। वह इतना पराक्रमी था कि अपनी सेना को पीछे लौटती देख कर भी शत्रुओं की सेना ही की तरफ़ बढ़ता और उस पर आक्रमण करता गया। जब उसका क़दम उठा तब आगे ही को, कभी पीछे को नहीं। घास के ढेर में आग लग जाने पर, हवा उसके धुवें को चाहे भले ही इधर उधर कर दे; पर आग को वह उसके स्थान से ज़रा भी नहीं हटा सकती। वह तो वहीं रहती है जहाँ घास होती है। शरीर पर लोहे का कवच धारण किये, पीठ पर बाणों से भरा हुआ तूणीर लटकाये, हाथ में धनुष लिये, रथ पर सवार, उस महाशूर-वीर और रणदुर्मद अज ने उन राजाओं के समूह का इस तरह निवारण किया जिस तरह कि महावराह विष्णु