के द्वारा कुमारसम्भव की रचना का अनुमान आपने किया है। इसके सिवा
और भी कितनी ही बड़ी विचित्र कल्पनायें आपने की हैं। इनके अनुसार
कालिदास ईसा की पांचवीं सदी में विद्यमान थे।
कुछ समय से साहित्याचार्य पाण्डेय रामावतार शर्मा भी इस तरह
की पुरानी बातों की खोज में प्रवृत्त हुए हैं। आपने भी इस विषय में अपना
मत प्रकाशित किया है । आपकी राय है कि कालिदास द्वितीय चन्द्रगुप्त
और उसके पुत्र कुमारगुप्त के समय में थे। यह खबर जच मजूमदार
बाबू तक पहुँची तब उन्होंने माडर्न-रिव्यू में वह लेख प्रकाशित
किया जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है। उसमें आप कहते हैं कि
कालिदास का स्थिति-काल हूँढ निकालने का यश जो पाण्डेय जी
लेना चाहते हैं वह उन्हें नहीं मिल सकता। उसके पाने का अधि-
कारी अकेला मैं ही हूँ। क्योंकि इस आविष्कार को मैंने बहुत पहले
किया था । पाण्डेय जी कहते हैं कि जो आविष्कार मैंने किया है
उसका इजित मुझे स्मिथ साहब और मुग्धानलाचार्य से मिला था ।
उसी इशारे पर मैंने अपने अनुमान की इमारत खड़ी की है। मेरी सारी
कल्पनायें और तर्कनायें मेरी निज की हैं। इनके अनुसार कालिदास ईसा
की चौथी शताब्दी के अन्त और पांचवीं के प्रारम्भ में थे। श्रीराजेन्द्रनाथ-
विद्याभूषण प्रणीत 'कालिदास' नामक समालोचना-ग्रन्थ की भूमिका में
श्रीयुत हरिनाथ दे महाशय ने भी पाण्डेय जी का मत लिखा है। उसमें
उन्होंने लिखा है कि :-
(१) तस्मै सभ्याः सभायाय गोप्ने गुप्ततमेन्द्रियाः
(२) अन्वास्य गोप्ता गृहिणी-सहायः
(३) स्ववीर्यगुप्ता हि मना: प्रसूतिः
इत्यादि रघुवंश के श्लोकों में गोप्ता, गुप्त, गोप्त्रे आदि पद गुप्तवंशी
राजाओं के सूचक है।
प्रयाग में समुद्रगुप्त का जो स्तम्भ है उस पर उसके विजय की वार्ता
खुदी हुई है। वह रघु के दिग्विजय से बहुत कुछ मिलती है। अर्थात्
कालिदास ने रघु के दिग्विजय के बहाने समुद्रगुप्त का दिग्विजय-वर्णन
किया है । मजूमदार महाशय ने रघु का दिग्विजय स्कन्दगुप्त का
दिग्विजय बताया ! इन्होंने उसे समुद्रगुप्त का बताया !! आगे चल कर
पाठको को मालूम होगा कि एक और महाशय ने उसे ही यशोधर्मा का
दिग्विजय समझा है !!! कुमारसम्भव के “कुमार-कल्पं सुषुवे कुमारं"
और “न कारणादू स्वाद् बिभिदे कुमारः "-आदि में जो 'कुमार' शब्द है
उसे आप लोग कुमारगुप्त का गुप्तवाची बतलाते हैं।