पाण्डेयजी की यशःप्राप्ति में बड़ी बाधायें आ रही हैं । डाकर एच बेक
( Beckh ) तिब्बती और संकृत भाषा के बड़े पण्डित हैं। कालिदास के
समय-निर्णय के विषय में जिन तत्त्वों का आविष्कार पाण्डेयजी ने किया
है प्रायः उन्हों का आविष्कार डाकर साहब ने भी किया है। परन्तु
पण्डितों की राय है कि दोनों महाशयों को एक दूसरे की खोज की
कुछ भी खबर न थी । दोनों निरूपण या निर्णय यद्यपि मिलते हैं
तथापि उनमें परस्पर आधार-प्राधेय भाव नहीं। पाण्डेयजी इस समय
कालिदास के स्थिति-काल-सम्बन्ध में एक बड़ा ग्रन्थ लिख रहे हैं। उनके
मत का सारांश नीचे दिया जाता है।
ईसा के पहले, पहले शतक में, विक्रम नाम का कोई ऐतिहासिक राजा
नहीं हुआ। उसके नाम से जो संवत् चलता है वह पहले मालवगणस्थित्याब्द
कहलाता था। मन्दसौर में ५२९ संवत् का जो उत्कीर्ण लेख मिला है वह
इस संवत् का दर्शक सब से पुराना लेख है। उसमें लिखा है :-
मालवानां गणस्थित्या याते शतचतुष्टये-इत्यादि
महागज यशोधर्मा के बहुत काल पीछे इस संवत् का नाम विक्रम संवत्
हुआ । गणरत्नमहोदधि के कर्ता वर्धमान पहले ग्रन्थकार हैं जिन्होंने
विक्रम संवत का उल्लेख किया है। देखिए :-
सतनवत्यधिवेकादशसु शतेष्वतीतेपु ।
वर्षाणां विक्रमतो गणरामहोदधिविहितः ॥
इसका पता नहीं चलता कि कब पार किसने मालव-संवत् का नाम
विक्रम संवत् कर दिया।
कालिदास शुल-गजायों से परिचित थे। वे गणित और फलित दोनों
ज्योतिप जानते थे। मेघदूत में उन्होंने वृहत्कथा की कथाओं का उल्लेख
किया है । हूगा प्रादि सामा-प्रान्त की जातियां का भी उन्हें ज्ञान था। उन्होंने
अपने ग्रन्थों में, पातञ्जल के अनुसार, कुछ व्याकरणा-प्रयोग जान बूझ कर
ऐसे किया है जो बहुत कम प्रयुक्त होते हैं । इन कारणों से कालिदास ईसवी
सन् के पहले के नहीं माने जा सकते। पतञ्जलि ईसा के पूर्व दूसरे शतक में थे।
उनके बाद पाली की पुत्री प्राकृन ने कितने ही रूप धारण किये । वह यहाँ तक
प्रबल हो उठी कि कुछ समय तक उसने संस्कृत को प्रायः दबा सा दिया।
अतएव जिस काल में प्राकृत का इतना प्राबल्य था उस काल में कालिदास
ऐसे संस्कृत-कवि का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। फिर, पैशाची भाषा में
लिखी हुई गुणाढ्य-कृत वृहत्कथा की कथाओं से कालिदास का परिचित
होना भी यह कह रहा है कि वे गुणाढ्य के बाद हुए हैं,प्राकृत के प्राबल्य-काल
में नहीं। कालिदास ने अपने ग्रन्थों में ज्योतिष-सम्बन्धिनी जो बातें लिखी