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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/१६५

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आठवाँ सर्ग।

यही नहीं, किन्तु उसे अपने हृदय में सादर स्थान देकर, उसके अनुसार बर्त्ताव भी कीजिए। सुनिएः—

"पुराण-पुरुष भगवान् त्रिविक्रम के तीनों पदों, अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन तीनों लोकों, में जो कुछ हो चुका है, जो कुछ हो रहा है और जो कुछ होनेवाला है उस सबको महर्षि वशिष्ठ अपनी प्रतिबन्धरहित ज्ञानदृष्टि से देख सकते हैं। उस अजन्मा परमेश्वर की सृष्टि में ऐसी एक भी बात नहीं जिसका ज्ञान महर्षि को न हो। वे सर्वज्ञ हैं। त्रिभुवन की समस्त घटनायें उन्हें हस्तामलक हो रही हैं। अतएव उनकी बातों को आप सर्वथा सच और विश्वसनीय समझिएगा। उनमें सन्देह न कीजिएगा। ऋषि ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं आपको एक पुरानी कथा सुनाऊँ। वह यह है कि तृणबिन्दु नाम के एक ऋषि थे। एक दफे़ उन्होंने बड़ी ही घोर तपस्या आरम्भ की। उन्हें बहुत ही उग्र तप करते देख इन्द्र डर गया। उसने समझा, कहीं ऐसा न हो जो ये, इस तपस्या के प्रभाव से, मेरा आसन छीन ले। इस कारण उसने हरिणी नाम की अप्सरा को, तृणबिन्दु मुनि की तपस्या भङ्ग करने के लिए, मुनि के आश्रम में भेजा। उसकी करतूत से मुनिवर तृणबिन्दु के तपश्चरण में विघ्न उपस्थित हो गया। अतएव उन्हें बेहद क्रोध हो आया। प्रलय-काल की तरङ्गमाला के समान उस क्रोध ने मुनि की शान्ति-मर्य्यादा तोड़ दी। तब उन्होंने, सामने खड़ी होकर अनेक प्रकार के हाव-भाव दिखाने वाली हरिणी को, शाप दिया। उन्होंने कहा—जा तू , पृथ्वी पर, मानवी स्त्री हो।

"यह शाप सुनते ही हरिणी के होश उड़ गये। उसने निवेदन किया—मुनिवर! मैं पराधीन हूँ। दूसरे की भेजी हुई यहाँ आई हूँ। लाचार होकर मुझे स्वामी की आज्ञा माननी पड़ी है, खुशी से नहीं। इस कारण मेरा अपराध क्षमा कीजिए। निःसन्देह मैंने बहुत बुरा काम किया। इस प्रार्थना को सुन कर तृणबिन्दु मुनि का हृदय दयार्द्र हो आया। उन्होंने कहा—अच्छा, देवताओं की पुष्पमाला का दर्शन होने तक ही तू पृथ्वी पर रहेगी। उसके दर्शन होते ही तेरा मानवी शरीर छूट जायगा और तू फिर अप्सरा होकर सुरलोक में आ जायगी।

"मुनि के शाप से उस अप्सरा का क्रथकैशिक वंश में जन्म हुआ। वहाँ उसने इन्दुमती नाम पाया और आपकी रानी बनने का सौभाग्य उसे प्राप्त हुआ। बहुत काल तक आपके पास रहने के अनन्तर उसके शाप-मोचन का समय आया। तब आकाश से गिरी हुई माला के स्पर्श से उसका मानवी शरीर छूट गया। वह करती क्या? आपको छोड़ जाने के लिए

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