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रघुवंश।

मोक्ष—से सम्बन्ध रखने वाले ज्ञान की उत्पत्ति हुई है। समय का परिणाम बताने वाले सत्य, त्रेता, आदि चारों युग तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्ण भी आप ही से उत्पन्न हुए हैं। कठिन अभ्यास से अपने मन को अपने वश में करके, योगी लोग, हृदय में बैठे हुए परम-ज्योतिःस्वरूप आप ही का चिन्तन, मुक्ति पाने के लिए, करते हैं। आप अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं; किसी प्रकार की इच्छा न रखने पर भी शत्रुओं का संहार करते हैं, सदा जागे हुए होकर भी सोते हैं। इस दशा में आपका यथार्थ ज्ञान किसे हो सकता है? कौन ऐसा है जो आपको अच्छी तरह जान सके? इधर तो आप राम, कृष्ण आदि का अवतार लेकर शब्द आदि के विषयों का उपभोग करते हैं; उधर नर-नारायण आदि का रूप धर कर घोर तपश्चर्य्या करते हैं। इधर दैत्यों का दलन करके प्रजा-पालन करते हैं; उधर चुपचाप उदासीनता धारण किये बैठे रहते हैं। इस तरह भोग और तपस्या, प्रजापालन और उदासीनता आदि परस्पर-विरोधी बर्त्ताव आप के सिवा और कौन कर सकता है? सिद्धि तक पहुँचने के लिए सांख्य, योग, मीमांसा आदि शास्त्रों ने जुदा जुदा मार्ग बनाये हैं। परन्तु—समुद्र में गङ्गा के प्रवाह के समान—वे सारे मार्ग, अन्त को, आप ही में जा मिलते हैं। पुनर्जन्म के क्लेशों से छुटकारा पाने के लिए जो लोग, विषय-वासनाओं से विरक्त होकर, सदा आपही का ध्यान करते हैं और अपने सारे कर्म्मों का फल भी सदा आपही को समर्पण कर देते हैं उनकी सिद्धि के एक मात्र साधक आपही हैं। आपही की कृपा से वे जन्ममरण के झंझटों से छूट जाते हैं। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, समुद्र आदि प्रत्यक्ष पदार्थ ही आपकी अमित महिमा की घोषणा दे रहे हैं। वही पुकार पुकार कर कह रहे हैं कि आपकी महिमा का ओर छोर नहीं। आपके उत्पन्न किये गये इन पदार्थों का ही सम्पूर्ण ज्ञान जब किसी को नहीं हो सकता तब इनके आदि-कारण आपका ज्ञान कैसे हो सकेगा? वेदों और अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध होने वाले आपकी महिमा की क्या बात है। वह तो सर्वथा अपरिमेय और अतुलनीय है। जब आप केवल स्मरण ही से प्राणियों को पावन कर देते हैं तब आपके दर्शन और स्पर्शन आदि के फलों का कहना ही क्या है। उनका अन्दाजा तो स्मरण के फल से ही अच्छी तरह हो जाता है। जिस तरह रत्नाकर के रत्नों की गिनती नहीं हो सकती और जिस तरह मरीचिमाली सूर्य्य की किरण की संख्या नहीं जानी जा सकती, उसी तरह आपके अगम्य और अपरिमेय चरित भी नहीं वर्णन किये जा सकते। वे स्तुतियों की मर्य्यादा के सर्वथा बाहर हैं। ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आपको प्राप्त न हो। अतएव किसी भी वस्तु की प्राप्ति की आप इच्छा नहीं रखते। जब आपको सभी कुछ