पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/१८९

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दसवाँ सर्ग।

प्राप्त है तब आप किस चीज़ के पाने की इच्छा रक्खेंगे? केवल लोकानुग्रह से प्रेरित होकर आप जन्म लेते और कर्म करते हैं। आपके जन्म और कर्म का कारण एकमात्र लोकोपकार है। लोक पर यदि आपकी कृपा न होती तो आपको जन्म लेने और कर्म करने की कोई आवश्यकता न थी। आपकी महिमा का गान करते करते, लाचार होकर, वाणी को रुक जाना पड़ता है। इसका कारण यह नहीं कि आपकी महिमा ही उतनी है। कारण यह है कि आपकी स्तुति करते करते वह थक जाती है। इसीसे असमर्थ होकर उसे चुप रहना पड़ता है। सम्पूर्ण-भाव से आपका गुण-कीर्तन करने में वह सर्वथा असमर्थ है"।

इन्द्रिय-ज्ञान के द्वारा न जानने योग्य भगवान् की इस प्रकार स्तुति करके देवताओं ने उन्हें प्रसन्न किया। जो कुछ उन्होंने कहा उसे परमेश्वर की प्रशंसा नहीं, किन्तु उनके गुणों का यथार्थ गान समझना चाहिए। क्योंकि, देवताओं का कथन सत्यता से भरा हुआ था। उसमें अतिशयोक्ति न थी। एक अक्षर भी उन्होंने बढ़ा कर नहीं कहा।

देवताओं का कथन समाप्त होने पर भगवान् ने उनसे कुशल-समाचार पूछा। इससे देवताओं को सूचित हो गया कि भगवान् उन पर प्रसन्न हैं। इस पर उन्होंने भगवान् से यह निवेदन किया कि रावणरूपी समुद्र, मर्य्यादा को तोड़ कर, समय के पहले ही, प्रलय करना चाहता है। इससे हम लोग अत्यन्त भयभीत हो रहे हैं।

देवताओं से भय का कारण सुन चुकने पर, विष्णु भगवान के मुख से बड़ी ही गम्भीर वाणी निकली। उसकी ध्वनि में समुद्र की ध्वनि डूब गई—उसने समुद्र की ध्वनि को भी मात कर दिया। समुद्र-तट के पर्वतों की गुफ़ाओं में घुस कर वह जो प्रतिध्वनित हुई तो उसकी गम्भीरता और भी बढ़ गई। पुराण-पुरुष विष्णु के कण्ठ, ओंठ, तालू आदि उच्चारण-स्थानों से निकलने के कारण उस वाणी की विशुद्धता का क्या कहना। उसने अपना जन्म सफल समझा। वह कृतार्थ हो गई। भगवान् के मुख से निकलने, और उनके दाँतों की कान्ति से मिश्रित होने, से वह—चरण से निकली हुई ऊर्ध्ववाहिनी गङ्गा के समान बहुत ही शोभायमान हुई। विष्णु भगवान् ने कहा:—

"देहधारियों के सत्व और रजोगुण को जिस तरह तमोगुण दबा लेता है उसी तरह राक्षस रावण ने तुम्हारे महत्त्व और पराक्रम को दबा लिया है। यह बात मुझ से छिपी नहीं। अनजान में हो गये पाप से साधुओं का हृदय जैसे सन्तप्त होता है वैसे ही रावण से त्रिभुवन सन्तप्त हो रहा है। यह

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