स्थिति-समय पर भी है । चैटर्जी महोदय का मत है कि कालिदास मालव-नरेश यशोधर्मा के शासन काल, अर्थात् ईसा' की छठी सदी, में वर्तमान थे । इनकी एक कल्पना बिलकुल ही नई है। उसे थोड़े में सुन लीजिए।
बड़े बड़े पण्डितों का मत है कि कपिल के सांख्य-प्रवचन-सूत्र सब से पुराने नहीं। किसी ने उन्हें पीछे से बनाया है। ईश्वरकृष्ण की सांख्य- कारिकाये ही सांख्य-शास्त्र का सबसे पुराना ग्रन्थ है। और, ईश्वरकृष्णा ईसा के छठे शतक के पहले के नहीं । कालिदास ने कुमारसम्भव में जो लिखा है :--
त्वामामनन्ति प्रकृति पुरुषार्थप्रवर्तिनीम् । तद्दर्शिनमुदासीनं त्वामेव पुरुपं विदुः ॥
वह सांख्यशास्त्र का सारांश है । जान पड़ता है कि उसे कालिदास ने ईश्वरकृष्णा के ग्रन्थ को अच्छी तरह देखने के बाद लिखा है। दोनों की भाषा में भी समानता है और सांख्यतत्त्व-निदर्शन में भी। इस बात की पुष्टि में चैटर्जी महाशय ने रघुवंश के तेरहवेसर्ग का एक पद्य, और रघुवंश तथा कुमारसम्भव में व्यवहृत 'सङ्घात शब्द भी दिया है। आपकी राय है कि 'सकात' शब्द भी कालिदास का ईश्वरकृष्ण ही के ग्रन्थ से मिला है। यहाँ पर यह शङ्का हो सकती है कि ईसा के छठे ही शतक में ईश्वरकृष्णा भी हुए और कालिदास भी। फिर किस तरह अपने समकालीन पण्डित की पुस्तक का परिशीलन करके कालिदास ने उसके तत्त्व अपने काव्यों में निहित किये । क्या मालूम ईश्वरकृष्ण छठी सदी में कब हुए और कहाँ हुए ? यदि यह मान भी लिया जाय कि कालिदास छठी ही सदी में थे तो भी इसका क्या प्रमाण कि वे ईश्वरकुष्ण से दस बीस वर्ष पहले ही लोकान्तरित नहीं हुए ? इसका भी क्या प्रमाण कि ईश्वरकृष्ण की कारिकाओं के पहले सांख्य का और कोई ग्रन्थ विद्यमान न था ? सम्भव है कि कालिदास के समय में रहा हो और पीछे से न हो गया है।। कुछ भी हो, चैटर्जी महाशय की सब से नवान और मनोरञ्जक कल्पना यही है। आपकी राय में रधुवंश और कुमारसम्भव ५८७ ईसवी के पहले के नहीं।
चैटर्जी महोदय ने अपने मत को और भी कई बातों के आधार पर निश्चित
किया है। कालिदास के काव्यों में ज्योतिषशास्त्र-सम्बन्धिनी बातों के जो
उल्लेख हैं उनसे भी आपने अपने मत की पुष्टि की है। कविकुलगुरु शैव थे,
अथवा यों कहना चाहिए कि उनके ग्रन्थों में शिवपासनाद्योतक पद्य हैं।
ऐतिहासिक खोजों से आपने यह सिद्ध किया है कि इस उपासना का प्राबल्य,
बौद्ध मत के ह्रास होने पर, छठी सदी में ही हुआ था। यह बात भी