पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/१९१

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दसवाँ सर्ग।

के बाल वैसे ही बँधे पड़े हैं। सन्तोष की बात इतनी ही है कि रावण के स्पर्श से वे अपवित्र नहीं हुईं। कुछ डर नहीं, उनके खोले जाने का समय अब आ गया समझो। सुराङ्गनायें तुम्हें शीघ्र ही फिर मिल जायँगी और तुम उनके जूड़े खोल कर उनकी वियोग-व्यथा दूर कर दोगे"।

रावणरूपी अवर्षण से सूखते हुए देवतारूपी अनाज के पौधों पर, इस प्रकार का वाणीरूप जल बरसा कर, भगवान्‌रूपी कृष्ण-मेघ अन्तर्द्धान हो गये। देवताओं को जब यह मालूम हो गया कि भगवान् हम लोगों का काम करने के लिए उद्यत हैं तब उन्होंने भी इस काम में भगवान् की सहायता करने का निश्चय किया। अतएव, इन्द्र आदि देवता भी अपने अपने अंशों से इस तरह भगवान् के पीछे पीछे गये, जिस तरह कि वृक्ष अपने फूलों से पवन के पीछे जाते हैं। देवताओं ने भी अपनी अपनी मात्राओं से हनूमान् और सुग्रीव आदि का अवतार लिया।

उधर शृङ्गी ऋषि आदि महात्माओं की कृपा से राजा दशरथ का पुत्रेष्टि-यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया। उसके अन्त में, अग्नि-कुण्ड से, ऋत्विज ब्राह्मणों के अचम्भे के साथ ही, एक तेजस्वी पुरुष प्रकट हुआ। खीर से भरा हुआ एक सुवर्णपात्र उसके दोनों हाथों में था। खीर में आदि-पुरुष भगवान् ने प्रवेश किया था; उनका अंश उसमें था। इस कारण उसमें बेहद भारीपन आ गया था—यहाँ तक कि वह पुरुष भी उस पात्र को बड़ी कठिनता से उठा सका था। प्रजापति-सम्बन्धी उस पुरुष के दिये हुए अन्न को—समुद्र से निकले हुए अमृत को इन्द्र के समान—राजा दशरथ ने ले लिया। त्रिलोकी के नाथ भगवान् ने भी दशरथ से जन्म पाने की इच्छा की। फिर भला और कौन ऐसा है जो दशरथ की बराबरी कर सके? उसके सौभाग्य की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। उसके से गुण और किसी में नहीं पाये गये।

सूर्य्य जैसे अपनी प्रातःकालीन धूप, पृथ्वी और आकाश को बाँट देता है, वैसे ही दशरथ ने भी वह चरु-नामक विष्णु-तेज अपनी दो रानियों, कौसल्या और कैकेयी, को बाँट दिया। राजा की जेठी रानी कौसल्या थी; पर सब से अधिक प्यार वह केकयी का करता था। इससे इन्हीं दोनों को उसने वह खीर पहले अपने हाथ से दी। फिर उसने उनसे कहा कि अब तुम्हीं अपने अपने हिस्से से थोड़ी थोड़ी खीर सुमित्रा को देने की कृपा करो। राजा की यह इच्छा थी कि सब को अपना अपना हिस्सा भी मिल जाय और कोई किसी से अप्रसन्न भी न हो। उसके मन की बात कौसल्या और कैकेयी ताड़ गई, अतएव, उन्होंने चरु के आधे आधे हिस्सों से सुमित्रा