पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

ग्यारहवाँ सर्ग।
—:○:—
परशुराम का पराभव।

महामुनि विश्वामित्र के यज्ञ में राक्षस विघ्न डालने लगे। उनके उपद्रव से विश्वामित्र तङ्ग आ गये। अतएव, वे दशरथ के पास आये और यज्ञ की रक्षा के लिए उन्होंने राजा से रामचन्द्र को माँगा। राम की उम्र उस समय थोड़ी ही थी। सिर पर जुल्फ़ रखाये हुए वे अधिकतर बालक्रीड़ा ही किया करते थे। परन्तु, इससे यह न समझना चाहिए कि वे मुनि का इच्छित कार्य्य करने योग्य न थे। बात यह है कि तेजस्वियों की उम्र नहीं देखी जाती। उम्र कम होने पर भी वे बड़े बड़े काम कर सकते हैं।

महाराज दशरथ विद्वानों का बड़ा आदर करते थे। वे बड़े समझदार थे। यद्यपि उन्होंने बड़े दुःखों से बुढ़ापे में, रामचन्द्र जैसा पुत्र पाया था, तथापि उन्होंने राम ही को नहीं, लक्ष्मण को भी, मुनि के साथ जाने की आज्ञा दे दी। रघु के कुल की रीति ही ऐसी है। माँगने पर प्राण तक दे डालने में सोच-सङ्कोच करना वे जानते ही नहीं। वे जानते हैं केवल याचकों की वाञ्छा पूर्ण करना।

राम-लक्ष्मण को मुनि के साथ जाने की अनुमति देकर, राजा दशरथ ने उन मार्गों के सजाये जाने की आज्ञा दी जिनसे राम-लक्ष्मण को जाना था। परन्तु जब तक राजा की आज्ञा का पालन किया जाय तब तक पवन से सहायता पाने वाले बादलों ने ही, फूल-सहित जल बरसा कर उन मार्गों को सजा दिया। पानी का छिड़काव करके उन्होंने उन पर फूल बिछा दिये।

राम-लक्ष्मणा ने पिता की आज्ञा को सिर पर रक्खा। वे जाने को तैयार हो गये। अपना अपना धनुष उन्होंने उठा लिया और पिता के पास बिदा होने गये। बड़े भक्ति-भाव से उन्होंने पिता के पैरों पर सिर रख दिये। उस