लठ की तरह ऊपर उठाये हुए वह रामचन्द्र पर दौड़ी। उसे इस तरह आकमण करने के लिए आती देख राम ने बाण के साथ ही स्त्रीहत्या की घृणा भी छोड़ दी—इस बात की परवा न करके कि स्त्री का वध निषिद्ध है, उन्होंने धनुष तान कर ताड़का पर बाण छोड़ ही दिया। ताड़का की शिला सदृश कठोर छाती को फाड़ कर वह बाण पीठ की तरफ़ बाहर निकल आया। उसने उस राक्षसी की छाती में छेद कर दिया। राक्षसों के देश में तबतक प्रवेश न पाये हुए यमराज के घुसने के लिए इस छेद ने द्वार का काम किया। राक्षसों का संहार करने के लिए, इसी छेद के रास्ते, यमराज उनके देश में घुस सा आया। रावण की राज्य-लक्ष्मी अब तक ख़ूब स्थिर थी। तीनों लोकों का पराजय करने से उसकी स्थिरता बहुत बढ़ गई थी। उसके भी डगमगाने का समय आ गया। बाण से छाती छिद जाते ही ताड़का धड़ाम से ज़मीन पर गिर गई। उसके गिरने से उस तपोवन की भूमि तो हिल ही गई, रावण की अत्यन्त स्थिर हुई वह राज्य-लक्ष्मी भी हिल उठी। रावण के भी भावी पतन का सूत्रपात हो गया। जिस तरह अभिसारिका स्त्री, पञ्चशायक के शायक से व्यथित होकर, शरीर पर चन्दन और कस्तूरी आदि का लेप लगाये हुए अपने जीवितेश (प्रेमपात्र) के पास जाती है उसी तरह, रामचन्द्र के दुःसह शर से हृदय में अत्यन्त पीड़ित हुई निशाचरी ताड़का, दुर्गन्धिपूर्ण रूधिर में सराबोर हुई, जीवितेश (यम) के घर पहुँच गई।
रामचन्द्र के इस पराक्रम से विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए। अतएव ताड़का मारने के उपलक्ष्य में उन्होंने रामचन्द्र को एक ऐसा अस्त्र दिया जो, राक्षसों पर छोड़ा जाने पर, उन्हें मारे बिना न रहे। महामुनि ने उस अस्त्र के प्रयोग का मन्त्र और उसके चलाने की विधि भी रामचन्द्र को बतला दी। महामुनि से उस अस्त्र को रामचन्द्र ने—सूर्य्य से लकड़ी जलानेवाले तेज को सूर्य्यकान्त मणि की तरह—पाकर उसे सादर ग्रहण किया।
ताड़का को मार कर रामचन्द्र, चलते चलते, वामनजी के पावन आश्रम में आये। उसका नाम आदि विश्वामित्र ने उनसे पहले ही बता दिया था। वहाँ पहुँच कर रामचन्द्र को यद्यपि अपने पूर्वजन्म, अर्थात् वामनावतार, से सम्बन्ध रखनेवाली बातें याद न आईं, तथापि वे कुछ अनमने से ज़रूर हो उठे। इस समय वे कुछ सोचने से लगे।
वहाँ से चल कर, राम-लक्ष्मण को साथ लिये हुए, विश्वामित्र ने अपने आश्रम में प्रवेश किया। जाकर उन्होंने देखा कि उनके शिष्यों ने पूजा-अर्चा की सामग्री पहले ही से एकत्र कर रक्खी है, पत्तों के सम्पुटों की