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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२०६

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रघुवंश।

जनेऊ यह सूचित कर रहा था कि वे ब्राह्मण (जमदग्नि) के बेटे हैं। इसके साथही, उनके हाथ में धारण किया हुआ धनुष, जिसके कारण वे इतने बली और अजेय हो रहे थे, यह बतला रहा था कि उनका जन्म क्षत्रियकुलोत्पन्न माता (रेणुका) से है। जनेऊ पिता के अंश का सूचक था और धनुष माता के अंश का। उग्रता और ब्रह्मतेज—कठोरता और कोमलताका उनमें अद्भुत मेल था। अतएव वे ऐसे मालूम होते थे जैसे चन्द्रमा के साथ सूर्य्य अथवा साँपों के साथ चन्दन का वृक्ष। उनके पिता बड़े क्रोधी, बड़े कठोरवादी और बड़े क्रूर-कर्म्मा थे। यहाँ तक कि क्रोध के वशीभूत होकर उन्होंने शास्त्र और लोक की मर्य्यादा का भी उल्लंघन कर दिया था। ऐसे भी पिता की आज्ञा का पालन करने में प्रवृत्त होकर, इस तेजःपुञ्ज पुरुष ने कँपती हुई अपनी माता का सिर काट कर पहले तो दया को जीता था, फिर पृथ्वी को। पृथ्वी को क्षत्रिय-रहित कर के उसे जीतने के पहलेही इन्होंने घृणा, करुण और दया को दूर भगा दिया था। ये बड़ेही निष्करुण और निर्दय थे। इनके दाहने कान से लटकती हुई रुद्राक्ष की माला बहुतही मनोहर मालूम होती थी। वह इनकी शरीरशोभा को और भी अधिक कर रही थी। वह माला क्या थी, मानो उसके बहाने क्षत्रियों के इक्कीस दफ़े संहार करने की मूर्त्तिमती गणना इन्होंने कान पर रख छोड़ी थी।

निरपराध पिता के मारे जाने से उत्पन्न हुए क्रोध से प्रेरित होकर परशुराम ने क्षत्रियों का समूल संहार करने की प्रतिज्ञा की थी। इस बात को सोच कर, और अपने छोटे छोटे बच्चों को देख कर, दशरथ को अपनी दशा पर बड़ा दुःख हुआ। उनके पुत्र का भी नाम राम और उनके क्रूर-कर्म्मा शत्रु का भी नाम राम (परशुराम)—इस कारण, हार और सर्प के फन की रत्न की तरह एक तो उन्हें प्यारा और दूसरा भयकारी हुआ।

परशुराम को देखते ही, उनका आदर-सत्कार करने के इरादे से, दशरथ ने 'अर्घ्य अर्घ्य' कह कर अपने सेवकों को आतिथ्य की सामग्री तुरन्तही ले आने की आज्ञा दी। परन्तु उनकी सुनता कौन है? परशुराम ने उनकी तरफ़ देखा तक नहीं। वे सीधे उस जगह गये जहाँ भरत के बड़े भाई रामचन्द्र थे। उनके सामने जाकर उन्होंने महाभयङ्कर पुतली वाली आँखों से उनकी तरफ़ देखा—उन आँखों से जिनसे क्षत्रियों पर उत्पन्न हुए कोप की ज्वाला सी निकल रही थी। रामचन्द्र उनके सामने निडर खड़े रहे। परशुराम युद्ध करने के लिए उतावले से होकर धनुष को मुट्ठी से मज़बूत पकड़े और उँगलियों के बीच में बाण को बार बार आगे पीछे करते हुए रामचन्द्र से बोले:—