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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२१०

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रघुवंश।

है। इससे अब मुझे बहुत कुछ शान्ति मिली है। अतएव आपने जो पराजयरूपी दण्ड मुझे दिया उसे मैं दण्ड नहीं समझता। उसे तो मैं आपका अनुग्रह ही समझता हूँ। जिस दण्ड का फल ऐसा अच्छा हो—जिस दण्ड की बदौलत मनुष्य को शान्ति मिले उसे दण्ड न कहना चाहिए। अच्छा तो अब मैं बिदा होता हूँ। देवताओं के जिस काम के लिए आपने अवतार लिया है उसे आप निर्विघ्न समाप्त करें"!

राम और लक्ष्मण को ऐसा आशीर्वाद देकर महर्षि विश्वामित्र अन्तर्द्धान हो गये। उनके चले जाने पर दशरथ ने विजय पाये हुए अपने पुत्र रामचन्द्र को छाती से लगा लिया। स्नेहाधिक्य के कारण, उस समय, उन्हें ऐसा मालूम हुआ जैसे रामचन्द्र का नया जन्म हुआ हो। क्षण भर सन्ताप सहने के अनन्तर उन्हें जो सन्तोष हुआ वह, दावानल से झुलसाये गये पेड़ पर जलवृष्टि के समान, आनन्ददायक हुआ।

शङ्कर के सदृश पराक्रमी दशरथजी जिस मार्ग से अयोध्या को लौट रहे थे वह पहले ही से ख़ूब सजाया जा चुका था। आई हुई आपदा के टल जाने पर अयोध्याधिप ने फिर अयोध्या का मार्ग लिया और कई रातें राह में आराम से बिता कर वे अपनी राजधानी को लौट आये। उनके लौटने की ख़बर सुन कर अयोध्या की स्त्रियों के हृदय में जानकीजी के दर्शनों की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई। इससे, जिस सड़क से सवारी आ रही थी उसके आस पास की नारियाँ दौड़ दौड़ कर अपने अपने घरों की खिड़कियों में आ बैठीं। उस समय उनकी बड़ी बड़ी सुन्दर आँखें देख कर यह मालूम होने लगा कि ये आँखें नहीं, किन्तु खिड़कियों में कमल ही कमल खिल रहे हैं। अयोध्या-नगरी के राजमार्ग की ऐसी मनोहारिणी शोभा देखते हुए दशरथ ने अपने महलों में प्रवेश किया।