सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२
भूमिका

के कोई और ऐसे लेख या पत्र कहीं छिपे हुए नहीं पड़े जिनमें यही संवत् विक्रम संवत् के नाम से उल्लिखित हो ? देखना यह चाहिए कि ईसवी सन् के ५७ वर्ष पहले मालवा में कोई बहुत बड़ी घटना हुई थी या नहीं और विक्रमादित्य नाम का कोई राजा वहाँ था या नहीं।

जरा देर के लिए मान लीजिए कि इसका आदिम नाम मालव-संवत् ही था। अच्छा तो इस नान को बदल कर कोई 'विक्रम-संवत्' करेगा क्यों ? कोई भी समझदार आदमी दूसरे की चीज़ का उल्लेख अपने नाम से नहीं करता। किसी विजेता राजा को दूसरे के चलाये संवत् को अपना कहने में क्या कुछ भी लजा न मालूम होगी ? वह अपना एक नया संवत् सहजही में चला सकता है। किसी के संवत् का नाम बदल कर उसे अपने नाम से चलाना और फिर उसे ६०० वर्षे पीछे फेंक देना बड़ी ही अस्वाभाविक बात है। भारतवर्ष का इतिहास देखने से मालूम होता है कि जितने विजेता राजाओं ने संवत् चलाया है सबने नया संवत् अपनेहीं नाम से चलाया है। पुराणां और भारतवर्ष की राजनीति-सम्बन्धिनी प्राचीन पुस्तकों में इस बात की साफ़ आज्ञा है कि बड़े बड़े नामी और विजया नरेशों को अपना नया संवत् चलाना चाहिए । युधिष्ठिर, कनिष्क , शालिवाहन और श्रीहर्षे आदि ने इस आज्ञा का पालन किया है। शिवाजी तक ने अपना संवत् अलग चलाने की चेष्टा की है । अतएव दूसरे के संवत् को अपना बनाने की कल्पना हास्यास्पद और सर्वथा अस्वाभाविक है।

पुरातत्त्ववेत्ता ईसा के पूर्व, पहले शतक, में किसी विक्रमादित्य का होना मानने में बेतरह सोच करते हैं। इसलिए कि उस समय का न कोई ऐसा सिका ही मिला है जिसमें इस राजा का नाम हो, न कोई शिलालेखही मिला है, न कोई ताम्रपत्रही मिला है। परन्तु उनकी यह युक्ति बड़ी ही निर्वल है। तत्कालीन प्राचीन इतिहास में इस राजा के नाम का न मिलना उसके अनस्तित्व का बाधक नहीं माना जा सकता । पुराने जमाने के सारे ऐतिहासिक लेख प्राप्त हैं कहाँ ? यदि वे सब प्राप्त हो जाते और उनमें विक्रमादित्य का नाम न मिलता तो ऐसी शङ्का हो सकती थी। पर बात ऐसी नहीं है। विक्रमादित्य का नाम ज़रूर मिलता है। दक्षिण में शातवाहन- वंशीय हाल-नामक एक राजा हो गया है । विन्सेंट स्मिथ साहब ने उसका

*केनडी नामक एक विलायती विद्वान् ने, कुछ समय हुश्रा, एक नवीन ही कल्पना कर डाली है । श्राप की राय है कि विक्रम संवत् राजा कनिष्क का चलाया हुआ है । ईसा के ५६ वर्ष पहले काश्मीर में बौद्धों का दूसरा सम्मेलन कराने और अपने जन्मधर्म को छोड़ कर बौद्ध होने के उपलक्ष्य में उसी ने इस संवत् का प्रचार किया। पर इस अनुमान का पोषक एक भी अच्छा प्रमाण श्रापने नहीं दिया ।