सरोवर का जल पी सी रही है। यहीं, इस सरोवर के किनारे, मैंने चकवा-चकवी के जोड़े देखे थे। अपनी अपनी चोंचों में कमल के केसर लेकर वे एक दूसरे को दे रहे थे। वे संयोगी थे; और, मैं, तुझसे बहुत दूर होने के कारण, वियोगी था। इससे मैंने उन्हें अत्यन्त चावभरी दृष्टि से देखा था। उस समय मेरा बुरा हाल था। मेरी विचार-बुद्धि जाती सी रही थी। सरोवर के तट पर अशोक की उस लता को, जो फूलों के गोल गोल गुच्छों से झुक रही है, देख कर मुझे तेरा भ्रम हो गया था। मुझे ऐसा मालूम होने लगा था कि वह लता नहीं, किन्तु तू ही है। इस कारण आँखों से आँसू टपकाता हुआ मैं उसका आलिङ्गन करने चला था। यदि सच बात बतला कर लक्ष्मण मुझे रोक न देते तो मैं अवश्य ही उसे अपने हृदय से लगा लेता।
"देख, गोदावरी भी आ गई। विमान के झरोखों से बाहर लटकती हुई तेरी सोने की करधनी के घुँघुरुओं का शब्द सुन कर, गोदावरी के सारस पक्षी, आकाश में उड़ते हुए, आगे बढ़ कर, तुझसे भेंट सी करने आ रहे हैं।
"अहा! बहुत दिनों के बाद आज फिर पञ्चवटी के दर्शन हुए हैं। यह वही पञ्चवटी है जिसमें तूने, कटि कमज़ोर होने पर भी, आम के पौधों को, पानी से घड़े भर भर कर, सींचा था। देख तो इसके मृग, मुँह ऊपर को उठाये हुए, हम लोगों की तरफ़ कितनी उत्सुकता से देख रहे हैं। इसे दुबारा देख कर आज मुझे बड़ा ही आनन्द हो रहा है। मुझे इस समय उस दिन की याद आ रही है जिस दिन आखेट से निपट कर, तेरी गोद में अपना सिर रक्खे हुए, नरकुल की कुटी के भीतर, एकान्त में, गोदावरी के किनारे, मैं सो गया था। उस समय, नदी की तरङ्गों को छूकर आई हुई वायु ने, मेरी सारी थकावट, एक पल में, दूर कर दी थी। क्यों, याद है न?
"अगस्त्य मुनि का नाम तो तू ने अवश्य ही सुना होगा। शरत्काल में उनके उदय से सारे जलाशयों के जल निर्म्मल हो जाते हैं। मैले जलों को निर्म्मल करनेवाले उन्हीं अगस्त्य का यह भूतलवर्त्ती स्थान है। इनकी महिमा अवर्णनीय है। इन्होंने अपनी भौँह टेढ़ी करके, केवल एक बार कोपपूर्ण दृष्टि से देख कर ही, नहुष-नरेश को इन्द्र की पदवी से भ्रष्ट कर दिया था। परम कीर्त्तिमान् अगस्त्य मुनि, इस समय, अग्निहोत्र कर रहे हैं। आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिण नामक उनकी तीनों आगों से उठा हुआ, हव्य की सुगन्धि से युक्त धुवाँ, देख, हम लोगों के विमान-मार्ग तक में छाया हुआ है। उसे सूँघने से मेरा रजोगुण दूर हो गया और मेरी आत्मा हलकी सी हो गई।