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रघुवंश।


"हे मानिनी! वह शातकर्णि मुनि का पञ्चाप्सर नामक विहार-सरोवर है। वह वन से घिरा हुआ है। अतएव, यहाँ से वह वन के बीच चमकता हुआ ऐसा दिखाई देता है जैसे, दूर से देखने पर, मेघों के बीच चमकता हुआ चन्द्रमा का बिम्ब थोड़ा थोड़ा दिखाई देता है। पूर्वकाल में शातकर्णि मुनि ने यहाँ पर बड़ी ही घोर तपस्या की थी। मृगों के साथ साथ फिरते हुए उन्होंने केवल कुश के अङ्कुर खाकर अपनी प्राण-रक्षा की थी। उनकी ऐसी उग्र तपस्या से डरे हुए इन्द्र ने यहीं उन्हें पाँच अप्सराओं के यौवनरूपी कपट-जाल में फँसाया था। अब भी वे यहीं रहते हैं। इस सरोवर के जल के भीतर बने हुए मन्दिर में उनका निवास है। इस समय उनके यहाँ गाना-बजाना हो रहा है। देख, मृदङ्ग की गम्भीर ध्वनि यहाँ, आकाश तक में, सुनाई दे रही है। उसकी प्रतिध्वनि से पुष्पक-विमान के ऊपरी कमरे, क्षण क्षण में, गुञ्जायमान हो रहे हैं।

"सुतीक्ष्ण नाम का यह दूसरा तपस्वी है। इसका चरित्र बहुत ही उदार और स्वभाव बहुत ही सौम्य है। देख तो यह कितनी कठिन तपस्या कर रहा है। नीचे तो, इसके चारों तरफ़, चार जगह, आग धधक रही है और ऊपर, इसके सिर पर, आकाश में, सूर्य्य तप रहा है। इस प्रकार इसे तपस्या करते देख, इन्द्र के मन में, एक बार सन्देह उत्पन्न हुआ। उसने कहा, ऐसा न हो जो ऐसी उग्र तपस्या के प्रभाव से यह तपस्वी मेरा इन्द्रासन छीन ले। अतएव, इसे तप से डिगाने के लिए उसने बहुत सी देवाङ्गनायें इसके पास भेजीं। उन्होंने इसके सामने उपस्थित होकर नाना प्रकार की शृङ्गार-चेष्टायें कीं। मन्द मन्द मुसकराती हुई उन्होंने कभी तो इस पर अपने कटाक्षों की वर्षा की; कभी, किसी न किसी बहाने, अपनी कमर की अधखुली करधनी दिखलाई; और कभी अपने हाव-भावों से इसे मोहित करना चाहा। परन्तु उनकी एक न चली। इस तपस्वी का मन मैला तक न हुआ और उन्हें विफल-मनोरथ होकर लौट जाना पड़ा। देख तो यह मुझ पर कितनी कृपा करता है। ऊर्ध्वबाहु होने के कारण इसका बायाँ हाथ तो ऊपर को उठा हुआ है। वह तो कुछ काम देता नहीं। रहा दाहना हाथ, सो उसे यह मेरी तरफ़ बढ़ा कर, इशारे से, मेरा सत्कार कर रहा है। इसी दाहने हाथ से यह कुशों के अङ्कुर तोड़ता है और इसी से मृगों को भी खुजलाता है। इसके इस हाथ में पहनी हुई रुद्राक्ष की माला भुजबन्द के समान शोभा दे रही है। यह सदा मौन रहता है, कभी बोलता नहीं। अतएव, मेरे प्रणाम का स्वीकार इसे, ज़रा सिर हिला कर ही, करना पड़ा है। बीच में विमान आ जाने से सूर्य्य इसकी ओट में हो गया था। परन्तु अब रुकावट दूर हो गई है। अतएव, यह फिर अपनी दृष्टि को सूर्य्य में लगा रहा है।