पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२४२

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चौदहवाँ सर्ग।
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सीता का परित्याग।

वहाँ, उस उद्यान में, रामचन्द्र और लक्ष्मण को, एकही साथ, अपनी अपनी माता के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि पति के मरने से उनकी दोनों मातायें, कौशल्या और सुमित्रा, आश्रयदाता वृक्ष के कट जाने से दो लताओं के समान बहुतही शोचनीय दशा को प्राप्त हैं। वैरियों का विनाश करके लौटे हुए परम पराक्रमी राम-लक्ष्मण ने, उनके पैरों पर अपने अपने सिर रख कर, क्रम क्रम से उन्हें प्रणाम किया। चौदह वर्ष के बाद पुत्रों की पुनरपि प्राप्ति होने के कारण उनकी आँखों में आँसू भर आये। अतएव वे राम-लक्ष्मण को अच्छी तरह न देख सकीं। परन्तु पुत्र-स्पर्श से जो सुख होता है उसका उन्हें अनुभव था। इससे स्पर्श-सुख होने पर, भूतपूर्व अनुभव द्वारा, उन्होंने अपने अपने पुत्र को पहचान लिया। उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनकी आँखों से आनन्द के शीतल आँसुओं की झड़ी लग गई। उस झड़ी ने उनके शोक के आँसुओं को इस तरह तोड़ दिया जिस तरह कि हिमालय के गले हुए बर्फ़ की धारा, धूप से तपे हुए गङ्गा और सरयू के जल के प्रवाह को तोड़ देती है। वे अपने शोक को भूल गईं। पुत्र-दर्शन से उनका दुःख सुख में बदल गया। वे अपने अपने पुत्र के शरीर पर धीरे धीरे हाथ फेरने, और, उस पर राक्षसों के शस्त्रों के आघात से उत्पन्न हुए घावों के चिह्नों को इस तरह दयार्द्र होकर छूने लगीं, मानों वे अभी हाल के लगे हुए टटके घाव हों। क्षत्रिय-जाति की स्त्रियों की यह सदाही कामना रहती है कि वे वीरप्रसु कहलावें—उनके पुत्र शूरवीर और योद्धा हों। परन्तु राम-लक्ष्मण के शरीर पर शस्त्रों के चिह्न देख कर कौशल्या और सुमित्रा ने वीरप्रसू-पदवी की आकाङ्क्षा न की। उन्होंने कहा—हम वीरजननी नहीं कहलाना चाहतीं। हमारे प्यारे पुत्रों को इस प्रकार शस्त्राघात की व्यथा न सहनी पड़ती तो अच्छा होता।