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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२४३

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चौदहवाँ सर्ग।


इतने में अपने स्वर्गवासी श्वसुर की दोनों रानियों, अर्थात् कौशल्या और सुमित्रा, को समान भक्ति-भाव से प्रणाम करते हुए सीता ने कहा:—"माँ! पति को दुःख देनेवाली, आपकी बहू, यह कुलक्षणी सीता आपकी वन्दना करती है"। यह सुन कर उन दोनों रानियों ने कहा:—"बेटी! उठ। यह तेरेही पवित्र आचरण का प्रभाव है जो इतना बड़ा दुःख झेल कर भाई सहित तेरा पति फिर हमें देखने को मिला"। इसमें सन्देह नहीं कि सीता जैसी सुलक्षणी और सब की प्यारी बहू के विषय में ऐसे ही प्यारे वचनों का प्रयोग उचित था। कौशल्या और सुमित्रा के ये वचन तो प्यारे होकर सच भी थे। अतएव, उनके प्रयोग के औचित्य का कहना ही क्या?

रघुकुल-केतु रामचन्द्रजी के राज्याभिषेक का आरम्भ तो उनकी दोनों माताओं के आँसुओं से, पहले ही, हो चुका था। पूर्त्ति उसकी होने को थी। सो वह सोने के कलशों में तीर्थों से लाये गये जलों से बूढ़े बूढ़े मन्त्रियों के द्वारा हुई। राक्षसों और बन्दरों के नायक चारों तरफ़ दौड़ पड़े। समुद्रों, सरोवरों और नदियों से भर भर कर वे जल ले आये। वह जल—विन्ध्याचल के ऊपर मेघों के जल की तरह—विजयी रामचन्द्र के शीश पर डाला गया। यथाविधि उनका राज्याभिषेक हुआ। तपस्वी का वेश भी जिसका इतना दर्शनीय था उसके राजेन्द्र-रूप की शोभा बहुतही बढ़ जायगी, इसमें सन्देह करने को जगह ही कहाँ? वह तो पुनरुक्तदोषा, अर्थात् दुगुनी, हो गई। एक तो रामचन्द्र की स्वाभाविक शोभा, दूसरी राजसी-रूप-रचना की शोभा। फिर भला वह दुगुनी क्यों न हो जाय?

तदनन्तर मन्त्रियों, राक्षसों और बन्दरों को साथ लिये और तुरहियों के नाद से पुरवासियों के समूह को आनन्दित करते हुए रामचन्द्र ने, तोरणों और बन्दनवारों से सजी हुई, अपने पूर्व पुरुषों की राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश के समय अयोध्या के ऊँचे ऊँचे मकानों से उन पर खीलों की बेहद वर्षा हुई। लोगों ने देखा कि रामचन्द्रजी रथ पर सवार हैं। लक्ष्मण और शत्रुघ्न, दोनों भाई, उन पर मन्द मन्द चमर कर रहे हैं। भरत, पीछे, उन पर छत्र धारण किये हुए खड़े हैं। उस समय देखनेवालों को वे अपने भाइयों सहित, साक्षात् साम, दान, दण्ड और भेद नामक चारों उपायों के समुदाय की तरह मालूम हुए।

रामचन्द्रजी के प्रवेश-समय में, अयोध्या के महलों के ऊपर छाये हुए कालागरु के धुवें की ध्वजा, वायु के झोंकों से टूट कर, इधर उधर फैल गई। उसे देख कर ऐसा मालूम हुआ जैसे वन से लौट कर रामचन्द्रजी ने अपनी पुरी की वेणी अपने हाथ से खोल दी हो। जब तक पति परदेश