कालिदास के काव्यों को ध्यानपूर्वक पढ़ने से यह मालूम होता है कि वे काश्मीर के रहने वाले थे। मेघदूत में उन्होंने उज्जेन और विदिशा से अलका तक का आँखों देखा सा वर्णन किया है। उसे पढ़ते समय ऐसा जान पड़ता है कि जिन पर्वतों, नदियों, नगरों और देवस्थानां आदि का उल्लेख उन्होंने किया है उनसे उनका प्रत्यक्ष परिचय था । कुमारसम्भव में हिमालय का जो वर्णन है उससे भी यही अनुमान होता है । साहित्याचार्य पण्डित रामावतार पाण्डेय, एम० ए० का भी यही अनुमान है। उन्होंने इस अनुमान की पुष्टि में विक्रमाङ्कदेवचरित से विल्हगा का यह श्लोक उद्धृत किया है :-...
सहोदराः कुङ्कमकेसराणां भवन्ति नून कविताविलासाः।
न शारदादेशमपास्य दृष्टस्तेपां यदन्यत्र मया प्ररोहः ॥
अर्थात केसर और कविता-विलास काश्मीर में सहोदर की तरह उत्पन्न होते हैं। यदि बाण जैसे गद्य-काव्य-प्रगता और कालिदास जैसे पद्य-रचना-निपुण महाकवि काश्मीर के निवासी न होते तो बिल्हण को ऐसी गाक्ति कहने का साहस न हाता। जान पड़ता है कि कालिदास प्रोढ़ वय में उज्जेन आये, क्योंकि कुमार- सम्भव और मालविकाग्निमित्र में, जो उनकी युवावस्था के ग्रन्थ हैं, उज्जेन- सम्बन्धिनी कोई बाते नहीं हैं। पर मेघदूत में सिप्रा, विदिशा और उज्जैन के मन्दिर, प्रासाद और उद्यान आदि का ऐसा अच्छा वर्णन है जैसे उन्होंने उनको प्रत्यक्ष देखा है।।
कालिदास ने यद्यपि अपने जन्म से भारत ही को अलत किया,
तथापि वे अकेले भारत के ही कवि नहीं । उन्हें भूमिमण्डल का महाकवि
कहना चाहिए । उनकी कविता से भारतवासियां ही की आनन्द-वृद्धि नहीं
होती। उसमें कुछ ऐसे गुण हैं कि अन्य देशों के निवासियों को भी उसके पाठ
और परिशीलन से वैसा ही आनन्द मिलता है जैसा कि भारतवासियों को
मिलता है। जिसमें जितनी अधिक सहृदयता है, जिसने प्रकृति के प्रसार
और मानव-हृदय के भिन्न भिन्न भावों का जितना ही अधिक ज्ञान-सम्मा-
दन किया है उसे कालिदास की कविता से उतना ही अधिक प्रमादानुभव
होता है। कवि-कुल-गुरु की कविता में प्रमोदोत्पादन की जो शक्ति है
वह अविनाशिनी है। हजारों वर्ष बीत जाने पर भी न उसमें कमी हुई
है, न उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न हुआ है और न आगे होने