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रघुवंश।

बहाने, रथ पर सवार होकर तुम उसे वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आओ। इससे उसकी इच्छा भी पूर्ण हो जायगी और मेरा अभीष्ट भी सिद्ध हो जायगा"।

पिता की आज्ञा से परशुराम ने अपनी माता के साथ शत्रुवत् व्यवहार करके उसका सिर काट लिया था—यह बात लक्ष्मण अच्छी तरह जानते थे। अतएव, उन्होंने अपने बड़े भाई की आज्ञा मान ली। बात यह है कि बड़े की आज्ञा का पालन, बिना किसी सोच-विचार के, करना ही चाहिए। वे जो कहें, चाहे वह भला हो चाहे बुरा, उसे चुपचाप कर डालना ही मनुष्य का धर्म है!

लक्ष्मण ने जानकीजी से जाकर कहा कि बड़े भाई ने तुम्हें तपोवन को ले जाने की आज्ञा दी है। वे तो यह चाहती ही थीं। अतएव, बहुत प्रसन्न हुईं। सुमन्त्र ने ज़रा भी न भड़कनेवाले घोड़े रथ में जोत दिये। उसने मन में कहा—सधे हुए ही घोड़े जोतने चाहिए, चञ्चल घोड़े जोतने से, सम्भव है, जानकीजी को कष्ट हो। रथ तैयार होने पर, सुमन्त ने घोड़ों की रास हाथ में ली और लक्ष्मण ने जानकीजी को उस पर बिठा कर अयोध्या से प्रस्थान कर दिया। बड़े ही अच्छे मार्ग से सुमन्त्र ने रथ हाँका। मनोहारी दृश्यों और स्थानों को देखती हुई जानकीजी चलीं। मन में यह सोच कर वे बहुत प्रसन्न हुईं कि मेरा पति मेरा इतना प्यार करता है कि मेरी इच्छा होते ही उन्होंने मुझे तपोवन का फिर दर्शन करने के लिए भेज दिया। हाय! उन्हें यह ख़बर ही न थी कि उनके पति ने उनके विषय में कल्पवृक्ष के स्वभाव को छोड़ कर असिपत्रवृक्ष के स्वभाव को ग्रहण किया है! रामचन्द्रजी अब तक तो जानकी के लिए कल्पवृक्ष अवश्य थे; परन्तु अब वे नरक के असिपत्र नामक उस पेड़ के सदृश हो गये थे जिसके पत्ते तलवार की धार के सदृश काट करते हैं।

रास्ते में भी लक्ष्मण ने सीताजी से असल बात न बताई। परन्तु जिस दुःसह भावी दुःख को उन्होंने छिपा रक्खा उसे सीताजी की दाहनी आँख ने फड़क कर बता ही दिया। सीताजी की आँखों के लिए रामचन्द्र का दर्शन बहुत ही प्यारा था। उन्हें देख कर उनकी आँखों को परमानन्द होता था। उस आनन्द से वे, और उनके द्वारा स्वयं सीताजी, चिरकाल के लिए वञ्चित होनेवाली थीं। इसी से उनकी दाहनी आँख से न रहा गया। फड़क कर उसने उस भावी दुःख की सूचना कर ही दी। इस बुरे शकुन ने सीताजी को विकल कर दिया। उनका मुखारविन्द कुम्हला गया। उस पर बेतरह उदासीनता छा गई। मुँह से तो उन्होंने कुछ न कहा। पर अन्तः-