करण से वे परमेश्वर की प्रार्थना करने लगीं। उन्होंने मन ही मन कहा:—"भाइयों सहित राजा का भगवान् कल्याण करे"!
मार्ग में आगे बहती हुई गङ्गाजी मिलीं। बड़े भाई की आज्ञा से, वन में छोड़ आने के लिए, उनकी पतिव्रता और सुशीला पत्नी को, ले जाते देख, गङ्गा ने अपने तरङ्गरूपी हाथ उठा कर लक्ष्मणा से मानों यह कहा कि ख़बरदार, ऐसा काम न करना! इन्हें छोड़ना मत! गङ्गा के किनारे सुमन्त्र ने रथ खड़ा कर दिया और लक्ष्मण ने रथ से उतर कर अपनी भावज को भी उतार लिया। तब तक उस घाट का मल्लाह एक सुन्दर नाव ले आया। सत्यप्रतिज्ञ लक्ष्मण उसी पर सीताजी को चढ़ा कर गङ्गा के पार उतर गये। पार क्या उतर गये, मानों बड़े भाई की आज्ञा से, सीताजी को वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आने के लिए उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसके वे पार हो गये। उन्होंने उसकी पूर्त्ति सी कर दी।
गङ्गा के उस पार पहुँचने पर जब रामचन्द्र की आज्ञा सुनाने का कठिन प्रसङ्ग उपस्थित हुआ तब लक्ष्मण की आँखें डब डबा आईं। उनका कण्ठ रुँध गया। कुछ देर तक उनके मुँह से शब्द ही न निकला। ख़ैर, हृदय को कड़ा करके, किसी तरह, उन्होंने, उत्पात मचाने वाले मेघ से पत्थरों की वृष्टि के समान, अपने मुँह से राजा की वह दारुण आज्ञा उगल दी। उसे सुनते ही तिरस्काररूपी तीव्र लू की मारी सीताजी, लता की तरह, अपनी जन्मदात्री धरणी पर धड़ाम से गिर गईं और उनके आभरणरूपी फूल उनके शरीर से टपक पड़े। विपत्ति में स्त्रियों को माता ही याद आती है। चाहे वह उनका दुःख दूर कर सके चाहे न कर सके, सहारा उसका ही स्त्रियों को लेना पड़ता है। हाय! माता धरणी ने सीता का दुःख दूर न किया। वह फटती तो उसके भीतर सीताजी प्रवेश कर जातीं। पर वह न फटी। उसे अपनी सुता के परित्याग में सन्देह सा हो आया। उसने अपने मन में मानों कहा:—"तेरे पति का आचरण बहुत ही शुद्ध है; वह बड़ा ही साधुचरित है। वह महाकुलीन भी है, क्योंकि इक्ष्वाकु के वंश में उसने जन्म पाया है। फिर भला, इस तरह, अकस्मात्, बिना किसी कारण के, वह तुझे कैसे छोड़ सकता है! मुझे इस आज्ञा पर विश्वास नहीं। इससे मैं तुझे अपने भीतर नहीं बिठा सकती।
जब तक जानकीजी मूर्च्छित पड़ी रहीं तब तक उन्हें दुःख से छुटकारा रहा। ज्ञानेन्द्रियों का व्यापार नष्ट हो जाने से दुःख का भी उन्हें ज्ञान न हुआ। लक्ष्मणजी ने उनके मुख पर पानी छिड़क कर और पंखा झल कर उन्हें जब फिर सचेत किया तब उनका हृदय दुःखाग्नि से बेतरह जल उठा। सचेत