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पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२५७

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पन्द्रहवाँ सर्ग।
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रामचन्द्र का स्वर्गारोहण।

समुद्र ने पृथ्वी को चारों तरफ से घेर रक्खा है। इस कारण वह पृथ्वी की मेखला के समान मालूम होता है। सीता का परित्याग कर चुकने पर, पृथ्वीपति रामचन्द्र के पास, समुद्ररूपी मेखला धारण करने वाली अकेली पृथ्वी ही, भोग करने के लिए, रह गई। अतएव एक मात्र उसी का उन्होंने उपभोग किया।

इतने में लवण नामक एक राक्षस बड़ी उद्दण्डता करने लगा। अपने अत्याचार और अन्याय से उसने यमुना के तट पर रहनेवाले तपस्वियों का नाकों दम कर दिया। यहाँ तक कि उनके यज्ञ तक उसने बन्द कर दिये। अतएव, बहुत पीड़ित होने पर, वे तपस्वी सब को शरण देनेवाले रामचन्द्रजी की शरण गये। यदि वे चाहते तो अपने तपोबल से लवण को एक पल में जला कर भस्म कर देते। परन्तु उन्होंने ऐसा करना मुनासिब न समझा। तपस्या के तेज का उपयोग तभी किया जाता है जब अत्याचारियों को दण्ड देकर तपस्वियों की रक्षा करने वाला और कोई विद्यमान न हो। तपस्वी अपने तपोबल का व्यर्थ ख़र्च नहीं करते। ऐसे ऐसे कामों में तपस्या का उपयोग करने से वह क्षीण हो जाती है।

रामचन्द्रजी ने मुनियों से कहा:—"आपकी आज्ञा मुझे मान्य है। लवणासुर को मार कर मैं आपकी विघ्नबाधायें दूर कर दूँगा"।

धर्म की रक्षाही के लिए धनुषधारी विष्णु पृथ्वी पर अवतार लेते हैं। इससे रामचन्द्रजी ने यमुना-तट-वासी तपस्वियों से जो प्रतिज्ञा की वह सर्वथा उचित हुई। उनका तो यह कामही था।

मुनियों ने रामचन्द्रजी की कृपा का अभिनन्द करके अपनी कृतज्ञता प्रकट की। उन्होंने उस देवद्रोही दैत्य के मारने का उपाय भी रामचन्द्रजी

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