भाई की सन्तानेत्पत्ति का समाचार सुन कर शत्रुघ्न को बड़ा आनन्द हुआ। प्रातःकाल होने पर, उन्होंने हाथ जोड़ कर मुनिवर वाल्मीकि को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से रथ पर सवार होकर चल दिया।
यथासमय शत्रुघ्न मधूपन्न नामक नगर में पहुँच गये। वे पहुँचे ही थे कि कुम्भीनसी नामक राक्षसी का पुत्र, लवणासुर, मारे हुए पशुओं के समूह को, वन से ली गई भेंट के सदृश, लिये हुए उन्हें मिल गया। उसका रूप बहुतही भयानक था। चलती फिरती चिता की आग के सदृश वह मालूम होना था। चिता की आग के सारे लक्षण उसमें थे। चिता की आग धुवें से कुछ धुँधली दिखाई देती है; वह भी धुवें के ही समान धुँधले रङ्ग का था। चिता की आग से जलते हुए मुर्दे की मज्जा की दुर्गन्धि आती है, उसके भी शरीर से मज्जा की दुर्गन्धि आती थी। चिता की आग ज्वालारूपी लाल-पीले केशवाली होती है; उसके भी केश ज्वाला ही के सदृश लाल-पीले थे। चिता की आग को मांसाहारी (गीध, चील्ह और गीदड़ आदि) घेरे रहते हैं, उसे भी मांसाहारी (राक्षस) घेरे हुए थे। दैवयोग से, उस समय, लवण के हाथ में त्रिशूल न था। उसे त्रिशूलहीन देख कर शत्रुघ्न बहुत खुश हुए। उन्होंने उस पर तत्काल ही आक्रमण कर दिया। यह उन्होंने अच्छा ही किया। क्योंकि, शत्रु के छिद्र देख कर जो लोग वहीं प्रहार करते हैं उनकी अवश्य ही जीत होती है जीत उनके सामने हाथ बाँधे खड़ी सी रहता है। युद्धविद्या के आचार्य्यों की आज्ञा है कि जिस बात में शत्रु को कमज़ोर देखे उसी को लक्ष्य करके उस पर आघात करे। इस मौक़े पर शत्रुघ्न ने इसी आज्ञा का परिपालन किया।
शत्रुघ्न को अपने ऊपर चोट करते देख लवणासुर के क्रोध की सीमा न रही। उसने ललकार कर कहा:—
"मुझे आज पेट भर खाने को न मिला देख, जान पड़ता है, ब्रह्मा डर गया है। इससे उसी ने तुझे, मेरे मुँह का कौर बनाने के लिए, भेजा है। धन्य मेरे भाग्य! ठहर; तेरी गुस्ताख़ी का बदला मैं अभी देता हूँ"।
इस प्रकार शत्रुघ्न को डराने की चेष्टा करके उसने पास के एक प्रकाण्ड पेड़ को, मोथा नामक घास के एक तिनके की तरह, जड़ से उखाड़ लिया और शत्रुघ्न को जान से मार डालने की इच्छा से, उसे उसने उन पर फेंका। परन्तु शत्रुघ्न ने अपने तेज़ बाण से बीच ही में काट कर उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले। वह पेड़ तो उनके शरीर तक न पहुँचा; हाँ उसके फूलों की रज उड़ कर ज़रूर उनके शरीर पर जा गिरी। अपने फेंके हुए