पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२६९

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पन्द्रहवाँ सर्ग।

से रामचन्द्रजी ने जो प्रतिज्ञा की थी उसका भेद लक्ष्मणजी को मालूम था। परन्तु दुर्वासा के शाप के डर से उन्हें, ऋषि के आगमन की सूचना देने के लिए, रामचन्द्रजी के पास जाना पड़ा। जाकर उन्होंने देखा तो रामचन्द्रजी एकान्त में बैठे हुए काल-पुरुष से बातें कर रहे थे। फल यह हुआ कि की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार रामचन्द्रजी ने लक्ष्मण का त्याग कर दिया।

लक्ष्मणजी योगविद्या में पारङ्गत थे। वे पूरे योगी थे। अतएव वे सरयू के किनारे चले गये और योग-द्वारा शरीर छोड़ कर बड़े भाई की प्रतिज्ञा को भङ्ग न होने दिया।

लक्ष्मण के पहलेही स्वर्गगामी हो जाने से रामचन्द्रजी का तेज एक चतुर्थांश कम हो गया। अतएव, तीन पैर के धर्म्म की तरह वे पृथ्वी पर शिथिल होकर किसी तरह अपने दिन पूरे करने लगे। अपने लीला-समापन का समय समीप पाया जान उन्होंने अपने बड़े बेटे कुश को, जो शत्रु रूपी हाथियों के लिए अङ्कुश के सदृश था, कुशावती में स्थापित कर के उसे वहाँ का राजा बना दिया। और, मधुर तथा मनोहर वचनों के प्रभाव से सज्जनों की आँखों से आँसू टपकाने वाले दूसरे बेटे लव को शरावती नामक नगरी में स्थापित करके वहाँ का राज्य उसे दे दिया।

इस प्रकार अपने दोनों पुत्रों को राजा बना कर स्थिर-बुद्धि रामचन्द्रजी ने स्वर्ग जाने की तैयारी कर दी। उन्होंने भरत और शत्रुघ्न को साथ लेकर और अग्निहोत्र की आग के पात्र को आगे करके, उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। यह बात अयोध्या से न देखी गई। उसने कहा:—"जब मेरे स्वामी रामचन्द्रजी ही यहाँ से चले जा रहे हैं तब मेरा ही यहाँ अब क्या काम? मैं भी उन्हीं के साथ क्यों न चल दूँ"। अतएव, स्वामी पर अत्यन्त प्रीति के कारण, निर्जीव घरों को छोड़ कर, वह भी रामचन्द्रजी के पीछे चल दी—सारे अयोध्यावासी रामचन्द्रजी के साथ चल दिये और अयोध्या उजाड़ हो गई। रामचन्द्रजी के मार्ग को, कदम्ब की कलियों के समान अपने बड़े बड़े आँसुओं से भिगोती हुई, अयोध्या की प्रजा जब चल दी, तब, रामचन्द्रजी के मन की बात जान कर, उनके सेवक राक्षस और कपि भी उसी पथ के पथिक हो गये। वे भी रामचन्द्रजी के पीछे पीछे रवाना हुए।

इतने में एक विमान स्वर्ग से आकर उपस्थित हो गया। भाइयों सहित रामचन्द्रजी तो उस पर सवार हो गये। रहे वे लोग जो उनके पीछे पीछे आ रहे थे; सो उनके लिए भक्तवत्सल रामचन्द्रजी ने सरयू को ही स्वर्ग की सीढ़ी बना दी। सरयू का अवगाहन करते ही, रामचन्द्रजी की कृपा