और भावपूर्ण सरस शब्दों को चुन चुन कर अपनी कविता के काम में लगाया है । इससे उनकी रचना देववाणी की तरह मालूम होती है। कालिदास की भावोद्बोधन-शक्ति ऐसी अच्छी थी कि पिछले हजार वर्ष के संस्कृत-साहित्य में सर्वत्र उसी की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। इनकी कविता में संक्षिप्तता, गम्भीरता और गौरव-तीनों बातें पाई जाती हैं। भाषा की सुन्दरता और प्रसङ्गानुकूल शब्दों की योजना से इनकी रचना का सौन्दर्य और माधुर्य और भी बढ़ गया है । यों तो कालिदास ने सभी विषयों का वर्णन बड़े ही ललित पद्यों में किया है, पर इनके ऐतिहासिक काव्य और नाटक बहुत ही अच्छे है । ऐतिहासिक काव्य-रचना में कालिदास मिल्टन से भी बढ़ गये हैं । इनके नाटकों की भाषा में प्रसा- धारण सुन्दरता और मधुरता है । वह भाषा बोल-चाल में व्यवहार करने लायक है । कालिदास को इन्हीं श्रेष्ठ गुणां से युक्त होकर ऐसे समय में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसके साथ इनकी स्वाभाविक सहा- नुभूति थी।
"कालिदास ने अपने अपूर्व कवि-कौशल से अनूठे अनूठे पौराणिक दृश्यों पर नये नये बेलबूटे लगा कर उनकी सुन्दरता और भी बढ़ा दी है। आंख, कान, नाक, मुंह आदि शानेन्द्रियों की तृप्ति के विषय, तथा कल्पना पौर प्रवृत्ति, यही बाते काव्यरचना के मुख्य उपादान हैं । कालिदास ने इन सामग्रियों से एक आदर्श-सौन्दर्य की सृष्टि की है। कालिदास के काव्यों से स्वर्गीय सौन्दर्य की आभा झलकती है। वहाँ सभी विषय सौन्दर्य के शासन के अधीन हैं । धार्मिक भाव और बुद्धि भी सौन्दर्य-शासन में रक्खी गई है। परन्तु, इतने पर भी, अन्यान्य सौन्दर्य-उपासना-पूर्ण कवि- तायों के स्वाभाविक दोषों से कालिदास की कविता बची हुई है। अन्य कविताओं की तरह इनकी कविता धीरे धीरे कमजोर नहीं होती गई। उसमें दुराचार की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। इनकी कविता अपनी नायि- कानों की काली कुटिल अलकों पर भ्र-भलियों में भी अत्यन्त उलझी हुई नहीं जान पड़ती । कालिदास की रचना इन सब दोषों से बची हुई है। समुचित शब्दों के प्रयोग और काव्य के चमत्कार की ओर ही इनका अधिक ध्यान था।"
अरविन्द बाबू की इस सम्मति से हम पूर्णतया सहमत हैं।
रचनानैपुण्य और प्रतिभा के विकाशसम्बन्ध में कालिदास की बराबरी
का यदि पार कोई कवि हुआ है तो वह शेक्सपियर ही है। भिन्न भिन्न