जिस समय कुश लड़ाई पर जा रहा था उस समय वह अपने बूढ़े बूढ़े मन्त्रियों से कह गया था कि यदि मैं युद्ध से लौट कर न आऊँ तो मेरे पीछे अयोध्या का राज्य अतिथि को दिया जाय। इस आज्ञा को स्मरण करके मन्त्रियों ने अतिथि को ही अयोध्या का राजा बनाना चाहा। उन्होंने कारीगरों को आज्ञा दी कि कुमार अतिथि का राज्याभिषेक करने के लिए, चार खम्भों पर खड़ा करके, एक नये मण्डप की रचना करो और उसके बीच में एक ऊँची सी वेदी बनाओ। इस आज्ञा का तत्काल ही पालन किया गया। सब तैयारियाँ हो चुकने पर, जब कुमार अतिथि अपने पैतृक सिंहासन पर विराजमान हुआ तब तीर्थों के जल से भरे हुए सोने के कलश साथ ले लेकर मन्त्री लोग उसके सामने उपस्थित हुए। अभिषेक की क्रिया आरम्भ कर दी गई। तुरहियों हृदयहारिणी गम्भीर ध्वनि करने लगीं। उन्हें बजते सुन लोगों ने यह अनुमान किया कि राजा अतिथि का सदा ही कल्याण होगा; उसकी सुख-सम्पदाओं में कभी त्रुटि न होगी। दूब, जौ के अङ्कुर, बरगद की छाल और कोमल पल्लव थाली में रख कर, बूढ़े बूढ़े सजातियों ने पहले अतिथि पर आरती उतारी। तदनन्तर वेदवेत्ता ब्राह्मण, पुरोहित को आगे करके, विजय देनेवाले अथर्ववेद के मन्त्र पढ़ कर अतिथि का अभिषेक करने के लिए आगे बढ़े—उस अतिथि का जिसके भाग्य में सदा ही विजयी होना लिखा था। अभिषेक-सम्बन्धी पवित्र जल की बहुत बड़ी धारा जिस समय शब्द करती हुई उसके सिर पर गिरने लगी उस समय ऐसा मालूम होने लगा जैसे त्रिपुर के वैरी शङ्कर के सिर पर गङ्गा की धारा हहराती हुई गिर रही हो। अभिषेक होता देख वन्दी-जनों ने अतिथि की स्तुति से पूर्ण गीत गाना आरम्भ कर दिया। उस स्तुति को सुन कर—चातक के द्वारा स्तुति किये गये मेघ के सदृश-वह महत्ता को पहुँचा हुआ सा दिखाई दिया। सन्मत्रों से पवित्र किये गये विविध जलों से स्नान करते समय उसकी कान्ति—मेंह से भिगोई गई बिजली की आग की कान्ति के सदृश—और भी अधिक हो गई।
अभिषेक की क्रिया समाप्त होने पर राजा अतिथि ने स्नातक ब्राह्मणों को अपार धन दिया। उस धन से उन लोगों ने जाकर एक एक यज्ञ भी कर डाला और यज्ञ की दक्षिणा के लिए भी उन्हें और किसी से कुछ न माँगना पड़ा। यज्ञ का सारा ख़र्च अतिथि के दिये हुए धन से ही निकल गया। राजा अतिथि के अपार दान से सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने उसे जो आशीर्वाद दिया उसे बेकार पड़ा रहना पड़ा। बात यह थी कि उस आशीर्वाद से जो फल प्राप्त होने वाले थे वे फल तो अतिथि को, अपने ही पूर्वजन्म के अर्जित कर्मों की बदौलत, प्राप्त थे। इस कारण ब्राह्मणों के आशी-