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रघुवंश।

र्वाद के फल, उसके लिए, उस समय, व्यर्थ से हो गये। आगे, किसी जन्म में, उनके विपाक का शायद मौक़ा आवे।

राज्याधिकार पाकर राजा अतिथि ने आज्ञा दी कि जितने क़ैदी क़ैदख़ानों में हैं सब छोड़ दिये जायँ; जिन अपराधियों को वध दण्ड मिला है वे वध न किये जायँ; जिनको बौझ ढोने का काम दिया गया है उनसे बोझ न ढुलाया जाय; जो गायें दूध देती है वे दुही न जायँ—उनका दूध उनके बछड़ों ही के लिए छोड़ दिया जाय। मनोरञ्जन के लिए तोते आदि पक्षी भी, जो उसके महलों में पींजड़ों के भीतर बन्द थे, उसने छोड़ दिये। छूट कर वे आनन्द से यथेच्छ विहार करने लगे।

इसके बाद स्नान करके और सुगन्धित धूप से बाल सुखा कर, वह राज-भवन के भीतर रक्खे हुए हाथीदाँत के चमचमाते हुए बहुमूल्य सिंहासन पर, जिस पर सुन्दर बिछाना बिछा हुआ था, वस्त्राभूषण पहनने और शृङ्गार करने के लिए, जा बैठा। तब कपड़े लत्ते पहनाने और शृङ्गार करने वाले सेवक, पानी से अच्छी तरह अपने हाथ धोकर, तुरन्त ही उसके पास आकर उपस्थित हुए और अनेक प्रकार के शृङ्गारों और वस्त्राभूषणों से उसे ख़ूब ही अलङ्कृत किया। पहले तो उन्होंने मोतियों की माला से उसके केश-कलाप बाँधे। फिर उनमें जगह जगह फूल गूँथे। इसके पीछे उसके सिर पर प्रभा-मण्डल विस्तार करने वाली पद्मरागमणि धारण कराई। तदनन्तर कस्तूरी मिले हुए सुगन्धित चन्दन का लेप शरीर पर कर के गोरोचना से बेल-बूटे बनाये। जिस समय सारे आभूषण पहन कर और कण्ठ में माला डाल कर उसने हंसों के चिह्न वाले (हंस कढ़े हुए) रेशमी वस्त्र धारण किये उस समय उसकी सुन्दरता बहुत ही बढ़ गई—उसकी वेश-भूषा राजलक्ष्मी-रूपिणी दुलहिन के दूल्हे के अनुरूप हो गई। शृङ्गार हो चुकने पर सोने का आईना उसके सामने रक्खा गया। उसमें उसका प्रतिबिम्ब, सूर्योदय के समय प्रभापूर्ण सुमेरु में कल्पवृक्ष के प्रतिबिम्ब के सदृश, दिखाई दिया।

इस प्रकार सज कर राजा अतिथि अपनी सभा में जाने के लिए उठा। उसकी सभा कुछ ऐसी वैसी न थी। देवताओं की सभा से वह किसी बात में कम न थी। राजा के चलते ही चमर, छत्र आदि राज-चिह्न हाथ में लेकर, उसके सेवक भी जय-जयकार करते हुए उसके दाहने बायें चले। सभा-स्थान में पहुँच कर अतिथि अपने बाप दादे के सिंहासन पर, जिसके ऊपर चँदोवा तना हुआ था, बैठ गया। यह वह सिंहासन था जिसकी पैर रखने की चौकी पर सैकड़ों राजाओं ने अपने मुकुटों की मणियाँ रगड़ी थीं और जिनकी रगड़ से वह घिस गई थी। उसके वहाँ विराजने से श्रीवत्स-