पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/२९५

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सत्रहवाँ सर्ग।

उद्योग—गर्भ में ही पकनेवाले धानों की तरह—भीतरही भीतर परिपक्व होते रहते थे। अच्छी तरह परिपाक हो चुकने पर कहीं उनका पता और लोगों को लगता था। इतना चतुर और इतना ऐश्वर्य्यवान् होने पर भी उसने कभी कुमार्ग में पैर न रक्खा। सदा सुमार्ग ही का उसने अवलम्बन किया। समुद्र बढ़ता है तब क्या वह मनमानी जगह से थोड़ेही बह निकलता है। बहता है तो नदी के मुहाने से ही बहता है, और कहीं से नहीं।

सुमार्गगामी होने के सिवा अतिथि ने प्रजारञ्जन को भी अपना बहुत बड़ा कर्त्तव्य समझा। प्रजा की अरुचि और अप्रसन्नता दूर करने की यद्यपि उसमें पूर्ण शक्ति थी—यद्यपि वह इतना सामर्थ्यवान् था कि प्रजा के असन्तोष और वैराग्य को तत्कालही दूर कर सकता था—तथापि उसने ऐसा कोई कामही न होने दिया जिससे उसकी प्रजा अप्रसन्न होती और जिसके दुष्परिणाम का उसे प्रतीकार करना पड़ता। ऐसाही उचित भी था। किसी रोग की रामबाण औषध पास होने पर भी उस रोग को न उत्पन्न होने देनाहीं बुद्धिमानी है।

राजनीतिज्ञ राजा अतिथि यद्यपि बड़ा पराक्रमी और बड़ा शक्तिशाली था, तथापि उसमे अपने से कमज़ोरही शत्रु पर चढ़ाइयाँ कीं। अपने से अधिक बलवान् पर तो क्या, समबल वाले वैरी पर भी उसने कभी चढ़ाई न की। दावानल, पवन की सहायता पाने पर भी, जलाने के लिए पानी को नहीं ढूँढ़ता फिरता। वह चाहे कितनाहीं प्रज्वलित क्यों न हो, और उसे चाहे कितनेही प्रचण्ड पवन की सहायता क्यों न मिले, पानी को वह नहीं जला सकता। इसी से वह उसे ढूँढ़ कर जलाने की चेष्टा नहीं करता। और, यदि, मूर्खतावश चेष्टा करे भी, तो भी उलटा उसी की हानि हो—पानी स्वयं ही उसे बुझा दे। अतिथि को तो राजनीति का उत्तम ज्ञान था। इससे उसने भी इसी दावानलवाली नीति का अवलम्बन किया।

धर्म्म, अर्थ और काम—इन तीनों को अतिथि ने समदृष्टि से देखा। न किसी पर उसने विशेष अनुरागही प्रकट किया और न किसी पर विशेष विरागही प्रकाशित किया। न उसने अर्थ और काम से धर्म्म को बाधा पहुँचने दी और न धर्म से अर्थ और कामही की हानि होने दी। इसी तरह न उसने अर्थ से काम को और न काम से अर्थ कोही क्षतिग्रस्त होने दिया। तीनों को उसने एक सा समझा; किसी के साथ पक्षपात न किया।

मित्र भी उसने बहुत समझ बूझ कर बनाये। उसने सोचा कि हीनों को मित्र बनाने से वे कुछ भी उपकार नहीं कर सकते और बलवानों को मित्र बनाने से वे उपद्रव करने लगते हैं। अतएव मध्यम शक्ति वालों ही