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कालिदास की शास्त्रज्ञान।

थे। इस बात के कितने ही प्रमाण उनके ग्रन्थों में पाये जाते हैं। उज्जयिनी बहुत काल तक ज्योतिर्विद्या का केन्द्र थी। जिस समय इस शास्त्र की बड़ी ही ऊर्ज्जितावस्था थी उसी समय, अथवा उसके कुछ काल आगे पीछे, कालिदास का प्रादुर्भाव हुआ। अतएव ज्योतिष से उनका परिचय होना बहुत ही स्वाभाविक था:—

(१) दृष्टिप्रपातं परिहृत्य तस्य कामः पुरः शुक्रमिव प्रयाणे।
(२) ग्रहस्ततः पञ्चभिरुच्चसंस्थैर्ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देवी।
(३) मैत्रे मुहूर्ते शशलाञ्छनेन योगं गतासूत्तरफल्गुनीषु।
(४) हिमनिर्मुक्तयोर्योगे चित्राचन्द्रमसोरिव।
(५) तिथौ च जामित्रगुणान्वितायाम्।

इत्यादि ऐसी कितनी ही उक्तियाँ कालिदास के ग्रन्थों में विद्यमान हैं जो उनकी ज्योतिष शास्त्रज्ञता के कभी नष्ट न होनेवाले सर्टिफिकेट हैं।

ग्रहण के यथार्थ कारण को भी कालिदास अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने रघुवंश में लिखा है:—

छाया हि भूमेः शशिनो मलत्वेनारोषिता शुद्धिमतः प्रजाभिः।

पदार्थविज्ञान से परिचय।

कुमारसम्भव केः—

हरस्तु किञ्चित्प्रविलुप्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः।

इस श्लोक से सूचित होता है कि समुद्र में ज्वार-भाटा आने का प्राकृतिक कारण भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था।

ध्रुव-प्रदेश में दीर्घकाल तक रहनेवाले उषःकाल का भी उन्हें शान था। उन्होंने लिखा है:—

मेरोरुषान्तेष्विव वर्त्तमानमन्योन्य संसक्तमहस्त्रियामम्।

उनके उषःकाल-सम्बन्धी ज्ञान का यह दृढ़ प्रमाण है।

सूर्य की उष्णता से पानी भाफ बन कर उड़ जाता है। वही बरसता है। इस बात को भी वे जानते थे। कुमारसम्भव का चौथा सर्ग इस की गवाही दे रहा है:—

रविपीतजला तपात्ये पुनरोघेन हि युज्यते नदी।

रघुवंश के:—

सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः।