पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/३४

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भूमिका।

इस पद्यार्द्ध से भी यही बात सिद्ध होती है।

"अयस्कान्तेनं लोहवत्"—लिख कर उन्होंने यह सूचना दी है कि हम चुम्बक के गुणों से भी अनभिज्ञ नहीं।

आयुर्वेद-ज्ञान।

कालिदास चाहे अनुभवशील वैद्य न रहे हों; चाहे उन्होंने आयुर्वेद का विधिपूर्वक अभ्यास न किया हो; परन्तु इस शास्त्र से भी उनका थोड़ा बहुत परिचय अवश्य था। और, सभी सत्कवियों का परिचय प्रधान प्रधान शास्त्रों से अवश्यही होना चाहिए। बिना सर्वशास्त्रज्ञ हुए—बिना प्रधान प्रधान शास्त्रों का थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त किये—कवियों की कविता सर्वमान्य नहीं हो सकती। महाकवियों के लिए तो इस तरह के ज्ञान की बड़ी ही आवश्यकता होती है। क्षेमेन्द्र ने इस विषय में जो कुछ कहा है बहुत ठीक कहा है। वैद्य-विद्या के तत्वों से कालिदास अनभिज्ञ न थे। कुमारसम्भव के दूसरे सर्ग में तारक के दौरात्म्य और पराक्रम आदि का वर्णन है। उस प्रसङ्ग में कालिदास ने लिखा है।

तस्मिन्नुपायाः सर्वे नः क्रूरे प्रतिहतक्रियाः।
वीर्यवन्त्यौपधानीव विकारे सान्निपातिके॥

मालविकाग्निमित्र में सर्पदंशचिकित्सा के विषय में कविकुलगुरु की उक्ति है:—

छेदो दंशस्य दाहो वा क्षतस्यारक्तमोक्षणम्।
एतानि दष्टमात्राणामायुष्याः प्रतिपत्तयः॥

इन अवतरणों से यह सूचित होता है कि कालिदास की इस शास्त्र में भी बहुत नहीं तो थोड़ी गति अवश्य थी।

राजनीति-ज्ञान।

इस विषय में तो कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं। रघुवंश में राजाओं ही का वर्णन है। उसमें ऐसी सैकड़ों उक्तियाँ हैं जो इस बात की घोषणा दे रही हैं कि कालिदास बहुत बड़े राजनीतिज्ञ थे। राजा किसे कहते हैं, उसका सबसे प्रधान धर्म्म या कर्तव्य क्या है, प्रजा के साथ उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए—इन बातों को कालिदास जैसा समझते थे वैसा शायद आज कल के बड़े से भी बड़े राजे-महाराजे और राजनीतिनिपुण अधिकारी न समझते होंगे। कालिदास की—"स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः"—सिर्फ़ यह एक उक्ति इस कथन के समर्थन के लिए यथेष्ट है।