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रघुवंश।

चलना पड़ता था। उनकी उस मन्द और सुन्दर चाल से तपोवन के आने जाने के मार्ग की रमणीयता और भी बढ़ गई।

महामुनि वशिष्ठ की धेनु के पीछे वन से लौटते हुए दिलीप को, उसकी रानी सुदक्षिणा ने, बड़े ही चाव से देखा। सारा दिन न देख पाने के कारण उसके नेत्रों को उपास सा पड़ रहा था। अतएव उसने अपने तृषित नेत्रों से राजा को पी सा लिया। बिना पलके बन्द किये, बड़ी देर तक टकटकी लगाये, वह पति को देखती रही। अपनी पर्णशाला से कुछ दूर आगे बढ़ कर वह नन्दिनी से मिली। वहाँ से वह उसे आश्रम को ले चली। वह आगे हुई, नन्दिनी उसके पीछे, और राजा नन्दिनी के पीछे। उस समय राजा और रानी के बीच नन्दिनी, दिन और रात के बीच सन्ध्या के समान, शोभायमान हुई।

गाय के घर आ जाने पर, पूजा-सामग्री से परिपूर्ण पात्र हाथ में लेकर राजपत्नी सुदक्षिणा ने पहले तो उसकी प्रदक्षिणा की। फिर अपनी मनोकामना की सिद्धि के द्वार के समान उसने उसके विशाल मस्तक की पूजा गन्धाक्षत आदि से की। उस समय नन्दिनी अपने बछड़े को देखने के लिए बहुत ही उत्कण्ठित हो रही थी। तथापि वह ज़रा देर ठहर गई। निश्चल खड़ी रह कर उसने रानी की पूजा को स्वीकार किया। यह देख कर वे दोनों, राजा-रानी, बहुत ही प्रसन्न हुए—उन्हें परमानन्द हुआ। कारण यह कि कामधेनु-कन्या नन्दिनी के समान सामर्थ्य रखनेवाले महात्मा यदि अपने भक्तों की पूजा-अर्च्चा सानन्द स्वीकार कर लेते हैं तो उससे यही सूचित होता है कि आगे चल कर पूजक के अभीष्ट मनोरथ भी अवश्य ही सफल होंगे।

गाय की पूजा हो चुकने पर राजा दिलीप ने अरुन्धती-सहित वशिष्ठ के चरणों की वन्दना की। फिर वह सायङ्कालीन सन्धोपासन से निवृत्त हुआ। इतने में दुही जा चुकने के बाद नन्दिनी आराम से बैठ गई। यह देख कर, अपनी भुजाओं के बल से वैरियों का उच्छेद करनेवाला राजा भी उसके पास पहुँच गया और उसकी सेवा करने लगा। उसने गाय के सामने एक दीपक जला दिया और अच्छा अच्छा चारा भी रख दिया। जब वह सोने लगी तब राजा भी पत्नी-सहित सो गया। ज्योंही प्रातःकाल हुआ और गाय सो कर उठी त्योंही उसका रक्षक वह राजा भी उठ खड़ा हुआ।

सन्तान की प्राप्ति के लिए, उस गाय की इस प्रकार पत्नी-सहित सेवा करते करते उस परम कीर्त्तिमान् और दीनोद्धारक राजा के इक्कीस दिन