पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/८१

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तीसरा सर्ग।

विभव का भी उसने अपने भुज-बल से उपार्जन किया था। उसे यह भी विश्वास था कि रानी के पुत्रही होगा। अतएव अपने प्रेम, औदार्य्य, वैभव और पुत्र-प्राप्ति से होने वाले अत्यधिक आनन्द के अनुसार उसने पुंसवनादि सारे संस्कार, बड़ेही ठाठ से, एक के बाद एक, किये।

इन्द्र आदि आठों दिक्‌पालों के अंश से युक्त होने के कारण सुदक्षिणा का गर्भ बहुतही गुरुत्व-पूर्ण था। वह इतना भारी था कि रानी को आसन से उठने में भी प्रयास पड़ता था। इस कारण राजा दिलीप के घर आने पर, दोनों हाथ जोड़ कर उसका आदर-सत्कार करने में भी उसे परिश्रम होता था। ऐसी गर्भालसा और चञ्चलाक्षी रानी को देखने पर राजा के आनन्द की सीमा न रहती थी।

बालचिकित्सा में अत्यन्त कुशल और विश्वासपात्र राजवैद्यों ने, नौ महीने तक, बड़ी सावधानता से रानी के गर्भ की रक्षा की। दसवाँ महीना लगा। प्रसूति-काल आ गया। उस समय, आसन्नप्रसवा रानी को मेघ-मण्डल से छाई हुई नभःस्थली के समान देख कर राजा को परम सन्तोष हुआ। वह पुलकित हो गया।

प्रभाव, मन्त्र और उत्साहरूपी साधनों से जो शक्ति युक्त होती है वह त्रिसाधना-शक्ति कहाती है। ऐसी शक्ति जिस तरह कभी नाश न पानेवाले सम्पत्ति-समूह को उत्पन्न करती है, उसी तरह इन्द्राणी की समता करने वाली सदक्षिणा ने भी, यथासमय, बड़ी ही शुभ लग्न में, पुत्ररत्न उत्पन्न किया। उस समय रवि, मङ्गल, गुरु, शुक्र और शनि, ये पाँचों ग्रह, उच्च के थे। सब का उदय था; एक का भी, उस समय, अस्त न था। इससे सूचित होता था कि बालक बड़ा ही भाग्यवान् और प्रतापी होगा। जन्म-काल में एक ग्रह उच्च का होने से मनुष्य सुखी होता है; दो होने से श्रेष्ठ होता है; तीन होने से राज-तुल्य होता है; चार होने से स्वयं राजा होता है, और पाँच होने से देवतुल्य होता है। दिलीप के पुत्र-जन्म के समय तो पाँचों ग्रह उच्च के थे। अतएव उसके सौभाग्य का क्या ठिकाना! उसे तो देवताओं के सदृश प्रतापी होना ही चाहिए।

दिशायें प्रसन्न देख पड़ने लगीं; वायु बड़ी ही सुखदायक बहने लगी; होम की अग्नि अपनी लपट को दाहनी तरफ़ करके हव्य का ग्रहण करने लगी। उस समय जो कुछ हुआ सभी शुभ-सूचक हुआ। कारण यह कि उस शिशु का जन्म संसार की भलाई के लिए ही था। इसी से सभी बातें मङ्गल की सूचना देने वाली हुईं। सूतिका-घर में