पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०
रघुवंश।


"मेरे वज्र में इतनी शक्ति है कि वह बड़े बड़े पर्वतों तक को सहज ही में काट गिराता है। आज तक तेरे सिवा और कोई भी उसकी मार खाकर जीता नहीं रहा। तुझ में इतना बल और वीर्य्य देख कर मैं तुझ से बहुत सन्तुष्ट हुआ हूँ। अतएव, इस घोड़े को छोड़ कर और जो कुछ तू चाहे मुझ से माँग सकता है"।

मूर्छा जाते ही इन्द्र पर छोड़ने के लिए रघु अपने तरकस से एक और बाण निकालने लगा था। उसकी पूँछ पर सोने के पंख लगे हुए थे। उनकी चमक से अपनी उँगलियों की शोभा बढ़ाने वाले उस बाण को रघु ने आधा निकाल भी लिया था। परन्तु इन्द्र के मुँह से ऐसी मधुर और प्यारी वाणी सुनते ही, उसे फिर तरकस के भीतर रख कर, वह इन्द्र की बात का उत्तर देने लगा। वह बोला:—

"प्रभो! यदि तूने घोड़े को न छोड़ने का निश्चय ही कर लिया हो तो यह आशीर्वाद देने की दया होनी चाहिए कि यज्ञ की दीक्षा लेने में सदैव उद्योग करने वाले मेरे पिता को अश्वमेध-यज्ञ का उतना ही फल मिले जितना कि विधिपूर्वक यज्ञ समाप्त होने पर मिलता। यदि अश्वमेध का सारा फल पिता को प्राप्त हो जाय तो घोड़ा लौटाने की कोई वैसी आवश्यकता भी नहीं। एक बात और है। इस समय मेरा पिता यज्ञशाला में है। वह यज्ञसम्बन्धी अनुष्ठान में लगा हुआ है और यज्ञकर्त्ता में शङ्कर का अंश आ जाता है। इस समय, न वह यज्ञमण्डप को छोड़ सकता है और न यशसम्बन्धी कामों के सिवा और कोई काम ही कर सकता है। इस कारण उस तक पहुँच कर उसे इस घटना की सूचना देना मेरे लिए सम्भव नहीं। इससे यह वृत्तान्त सुनाने के लिए तू अपना ही दूत मेरे पिता के पास भेज दे। बस, इतनी कृपा और कर "।

रघु की प्रार्थना को इन्द्र ने स्वीकार कर लिया और 'तथास्तु' कह कर जिस मार्ग से आया था उसीसे उसने प्रस्थान किया। इधर सुदक्षिणा-सुत रघु भी पिता के यज्ञमण्डप को लौट गया। परन्तु बहुत अधिक प्रसन्न होकर वह नहीं लौटा। युद्ध में विजयी होने पर भी घोड़े की अप्राप्ति उसके जी में खटकती रही।

उधर रघु के पहुँचने के पहले ही उसका पिता दिलीप सारी घटना, इन्द्र के दूत के मुख से, सुन चुका था। रघु जब पिता के पास पहुँचा तब उसके शरीर पर दिलीप को वज्र के घाव देख पड़े। उस समय पुत्र की वीरता का स्मरण करके उसे परमानन्द हुआ। हर्षाधिक्य के कारण उसका हाथ बर्फ़ के समान ठंढा हो गया। उसी हाथ को पुत्र के घावपूर्ण शरीर पर उसने बड़ी देर तक फेरा और उसकी बड़ी बड़ाई की।