पृष्ठ:रघुवंश (अनुवाद).djvu/९१

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तीसरा सर्ग।


जिस की आज्ञा को पूजनीय समझ कर सब लोग सिर पर धारण करते थे ऐसे उस परम प्रतापी राजा दिलीप ने, इस प्रकार, एक कम सौ यज्ञ कर डाले। उसने ये निन्नानवे यज्ञ क्या किये, मानो अन्त समय में, स्वर्ग पर चढ़ जाने की इच्छा से उसने इतनी सीढ़ियों का एक सिलसिला बना कर तैयार कर दिया।

एक कम सौ यज्ञ कर चुकने पर राजा दिलीप का मन इन्द्रियों की विषय-वासना से हट गया। राज्य के उपभोग से उसे विरक्ति हो गई। अतएव, उसने अपने तरुण और सर्वथा सुयोग्य पुत्र रघु को श्वेतच्छत्र आदि सारे राजचिह्न देकर उसे विधिपूर्वक राजा बना दिया। फिर वह अपनी रानी सुदक्षिणा को लेकर तपोवन को चला गया। वहाँ वानप्रस्थ होकर वह मुनियों के साथ वृक्षों की छाया में रहने लगा। इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए राजाओं के कुल की यही रीति थी। वृद्ध होने पर, पुत्र को राज्य सौंप कर, वे अवश्य ही वानप्रस्थ हो जाते थे।