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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/११६

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(पंद्रहवां
रज़ीयाबेगम।


आशिकज़ार हूँ।"

रज़ीया,-" और क्या तू ही, कमोने ! मुझे इस अनजानी जगह में ले आया है?"

नकाबपोश,-" बेशक, बात ऐसी ही है।"

रज़ीया,-" तो क्या तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है?"

नकाबपोश,-" तब तक तो बेशक वह प्यारी नहीं है, जब तक कि प्यारी! तुझे सोने से न लगाऊं।"

नकाबपोश ने बेगम के सवालों का जिस दिलेरी के साथ जवाब दिया और वह जिस शोखी के साथ उस (बेगम ) के सामने डटा रहा, यह देख बेगम के होश उड़ गए और उसने उस नकाब- पोश को 'साधारण व्यक्ति' न समझा । आखिर, रंग बदरंग देख, वह ढीलो पड़गई और उसने दूसरे ढंग से उस नकाबपोश के साथ बातें करनी प्रारंभ की,-

रज़ीया,-"अच्छा भई ! अब जब कि मैं हर तरह से तुम्हारे काबू में पड़ी हुई हूं तो मैं यही बिहतर समझती है कि तुम्हारे साथ नर्मी से पेश आऊं।"

नकाबपोश,-'यह तुम्हारी खुशी है; तुम चाहे, जिस तरह मेरे साथ पेश आओ, मगर बेगम ! यह तुम बखूबी समझ लो कि सिवा मेरे साथ निकाह किए, तुम्हारी जान की ख़ैर नहीं है।"

रज़ीया ने समझा था कि,-'अगर मैं इस कंबल के साथ नर्मी से बातें करूंगी तो यह मूज़ी भी नर्म हो जायगा;' किन्तु जब उसने नकाबपोश को ख़मीरी आटे की तरह और भी ऐंठता हुआ देखा तो वह फिर चटकी और झंझला कर बोली,-

"मालूम होता है कि तू महज़ कमीना और बदमाश शख्स है कि हिन्दुस्तान की सुल्ताना के साथ इस तरह की गुफ्तगू करता है!"

नकाबपोश,-"बेशक, सुल्ताना साहिबा ! आप बजा फर्माती हैं । मैं, जैसा कि आप मुझे समझ रही हैं, उससे भी बदतर और नाकारा हूँ; मगर क्या मैं यह बात हुजूर से पूछ सकता हूं कि हिन्दु- स्तान की मलका की दिल्लगो के लायक क्या एक अदना गुलाम हो सकता है?"

रज़ीया,-"फ़र्ज़ करो कि हो सकता है, फिर तुम्हें इन बातों