पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/२६

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१८
(तीसरा
रज़ीयाबेगम।

तीसरा परिच्छेद.

गुलामी।

"दिल जले है ग़म से औ आंसू बहाना मना है।
लगरही है आग घर में औ बुझाना मना है ॥
जिगर में है शोलः औ नालः उठाना मना है।
चाक पर है चाक औ मरहम लगाना मना है।"

(अख़तर)

सूरज निकलने में अब थोड़ी ही देर है। पौ फटते ही चिड़ियाओं ने कैसा चहचहा मचा रक्खा है । अपने अपने घोसले से निकल, सब इधर उधर चराई के लिये जातीं और चहचहा कर मानों अपने अबोध बच्चों को ढाढ़स देती जाती हैं कि,-'मेरे प्यारे बच्चों ! धीरज धरो, मैं तुम्हारे लिये चारा लाती हूं।' ठंढी ठंढी हवा चल रही है । यद्यपि कातिक का महीना बीतने पर है और जाड़े की ऋतु आ धमकी है, तौभी तड़के की उढी और सुगन्ध से सनी हवा जी की कली को खिलाने में कोई कोर कसर नहीं करती। वे कलियां, जो रातभर रगरलियां मना चुकी हैं, तड़का होते ही अभिसारिका नायिका की भांति अपना मुंह नींचा कर लज्जा से सिमटी जाती हैं; किन्तु जो रातभर बिरहिनी कुलबधू को भांति संकुचित और उदास रहीं, प्रातःकाल होते ही आगतपतिका की भांति फूली अङ्गों नहीं समाती और खिलखिला उठी हैं। ऐसे समय में एक गांठगठीला, लंबे कद का; गोरा और सुन्दर युवक, जिसकी अवस्था कदाचित बाईस बरस से अधिक न होगी, बादशाही बाग़ में क़सरत कर के अंगोछे से बदन का पसीना पोछता हुआ रबिश पर चहलकदमी कर रहा और धीरे धोरे कुछ गुनगुना भी रहा है । इसका रंग गोरा, कद लबा, बदन पोढ़ा और भरा हुआ, पेशानी चौड़ी, हाथ पैर सुडौल और बलिष्ठ, चेहरा कुछ लंबा, आंखें बड़ी और नुकीली, नाक सीधी सुडौल, कान सीप से