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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/२७

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परिच्छेद)
१९
रङ्गमहल में हलाहल।

पतले ओठ, पतले और लाली लिये हुए । दांत मोती की लड़ी से साफ़ और सुडौल, मूछे सुन्दर और ऊपर को चढ़ी हुईं, दाढ़ी अभी निकली आती हुई, सिर के बाल धुंघराले, काले और पीठ तलक लटकते हुए थे।

टहलते टहलते वह युवक एक सुहावने सरोवर के तीर पहुंचा, जिसका घाट सुन्दर संगमर्मर से बना हुआ था और जिसमें जल- चर पक्षी तैर रहे थे। सरोवर के चारो ओर चार अठपहली संग- मर्मर की बुर्जियां बनी हुई थीं और चारोओर से आम के पेड़ों की कत्तार ने उस सरोवर को मानो एक मुहावने कुंज के अन्दर कर लिया था।

सरोवर के तीर बैठ कर उस युवक ने हाथ मुंह धोकर दो चार चुल्लू पानी पीया और पत्थर की सीढ़ी पर ताल देता हुआ आपही आप धीरे धीरे गाने लगा,-

मकदूर किसको हम्दे खुदाये जलील का।
इस जासे बे ज़बां है दहन कालो कील का॥
पानी में उसने राहबरी की कलाम की।
आतिश में वह हुआ चमन आरा ख़लील का॥
उसकी मदद से फ़ौज अबाबील ने किया।
लश्कर तबाह काबःप असहाब फ़ील का ॥
पैदा किया वह इसने बशर औज बिन्ने उन्क।
पुल जिसके साके पासे बना रौद नील का ॥
फिरता है उसके हुक्म से गरदूं य रात दिन ।
चलता है यां अमल कोई ज़रें सकील का ॥
बुलवाया अपने दोस्त को उसने वहां, जहां ।
मकदूर पर ज़दन न हुआ ज़बरईल का।
क्या पाते कुनह जात को उसके कोई ज़फ़र ।
वां अक्ल का न दख़ल न हर्गिज दलील का ॥ (१)
फिर थोड़ी देर तक वह आंखें बंद किए न जाने किस किस ख़याल
में उलझा रहा, पर फिर उठा और यों कहता हुआवहांसे चलपड़ा,--
"दुनियां में कुछ सिवाय रंजो महन न देखा।
कुंजे कफ़स में हमने रंगे चमन न देखा ॥


(१) इस उपन्यास में उर्दू की कविताएं जहां आवे, वे उर्दू शायरों की बनाई हुई समझनी चाहिए। (१) ज़फ़र ।